” कफन “
इस शहर में कोई कफन नहीं है क्या……
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कहाँ गये वो बलवान पुरुष कहाँ गये वो अभिमानी करते हैं सदा जो प्रताडित बच्चों अर स्त्री को दिखाते हैं सदा अपनी ही मनमानी !
ताकत अपनी दिखलाओ न ज़रा हमें भी इस चुंगल से छुडवाओ न ज़रा जीते जी जीने न दिया हँसी थी ज़िंदगी में हँसने ना दिया !
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इस शहर में कोई कफन नहीं है क्या ….
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घर में भी घुटन सी है , बाहर का तो कहना ही क्या
इस क्रूरता का समाधान भी है? या कोई मुझे समझाये ज़रा
खबरें भी ऐसी आती ही हैं सदा,
सुनकर भी अनसुना तुम करते हो सदा !
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इस शहर में कोई कफन नहीं है क्या . . ..
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उस वक्त के वो लोग उन्ही के वो अफसाने,
क्या दया थी क्या स्नेह था उनमें
मगर विड़बना आज की विपरीत है सदा
मरने की सोची बहुत मगर ये भी अब रास नहीं,
सपने बुनती रही मगर कुछ भी मेरे पास नहीं!
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इस शहर में कोई कफन नही है क्या ….
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अब खुदा को भी मैं दोष क्या दूँ भला,
मैं लड़की पैदा हुई यही मेरी सज़ा !
उम्मीदों में मेरे पानी कबका फ़िर गया,
अपनों ने ही जब ना उम्मीद कर दिया !
अब तो आँसुओं से टपकता नहीं मेरे पानी ,
समझ जो गई मैं यही हर लड़की की कहानी !
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इस शहर में कोई कफन नहीं है क्या . . . . .