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25 Jan 2024 · 2 min read

कन्यादान

कन्यादान
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नामों की फेहरिस्त बड़ी है, कामों की भी लिस्ट बड़ी है,
गंभीर चिंता में विचार मग्न, माथे पर रेखाएं गहरी है,
क्या-क्या होगा कैसे होगा, प्रश्नों का मेला लगा हुआ है
अखरोटी मस्तक में सारा दुविधा का खेला लगा हुआ है।

पृष्ठों पर सब अंकित है फिर भी,भय का साया है
समक्ष सारा क्रमवार चित्र भी लगता , भंग भजन सी माया है।
जीवन के व्यवहार खड़े हैं, सत्कारों की भी चिंता है
अतिथियों के स्वागत आतुर, अपना घर तो भन्ता है।

खान पान लेन देन, फूल माला गुलदस्ता हार
कही चूक न हो जाए, कम न हो कुछ भी उपचार
मौज मस्ती में मशगूल , सारे नाते रिश्तेदार है
नारियां घर की तय कर रही , अपना परिधान और श्रृंगार है।

वर्षों पश्चात मिलने वाले , झूठी उपलब्धि की कहानियां ,
किराये पर ओढ़े वस्त्रों की, मंच प्रतिबिंब में निशानियां।
किसका चमक रहा सूट, शेरवानी और ल’हंगा,
फुसफुसा रहे कानों में , किसका क्या कितना महंगा ,?

शोर गुल भीड़ भड़क्के में, सबके मध्य कही अकेला,
एक किरदार ही बेचारा, सतत किसी सोच में है गुम
तैयारियों के बाजार में, भिर भिर फिरता घूम घूम
आंखे देख रही व्यवस्था, कान लगे हुए द्वार पर,
वर का मेला कहां है पहुंचा, किस क्षण छोड़ा उसने बारात घर,
उसके अपने परिधान कहां है, कैसा विन्यास कैसी हजामत
किसको उसकी पड़ी हुई है, सब स्वयं अपने में मस्त ।

वर्षों की अनवर साधना, संभव जितने थे वो संस्कार
जीवन से परिचय करवाया, शिक्षित कर दिया आधार
आंगन की फुलवारी में पल्लवित , कुसुम सुमन का पुष्पहार
जिसको सींचा , जिसको संजोया , आज उसके षोडशोपचार।

स्वयंवर ,पाणिग्रहण, जननी जनक का समर्पण ज्ञान
किसने इस इतिहास को बदला , कैसे क्यों कहते इसको कन्यादान ?
जो स्वयं लक्ष्मी स्वरूपा है , सरस्वती का है सजीव प्रमाण
आरूढ़ विविध वेषों में आदि शक्ति का रूप महान
क्रय विक्रय का विधान तो स्वर्ण, रत्न है चल अचल संपत्ति,
क्या दान दोगे और लोगे सृष्टि की अनवर उत्पत्ति की आवृत्ति
किंतु आज भी समाज उसी परिपाटी में जी रहा है
एक अकेला सारे उत्सव में भय के घूंट पी रहा है
दो हृदयों का बंधन है , या दो परिवारों की हिस्सेदारी?
वंश किसका परिपोषित होगा भविष्य में एक की क्यों जिम्मेदारी ?

कितने व्यंजन कितने विविध पकवान
प्रसन्नचित्त विदा हो बारात और घर में आए सब मेहमान
स्वयं चख न पाया स्वाद , सिर्फ सेवा में रहा रत
जीवन का संभवतः ये होता है सबसे कठिन व्रत
हंसी खुशी संपन्न हो जाए , उसका ये तप उत्सव
लोग नमक , तेल, मिर्ची का करते रहेंगे चर्चाओं में महोत्सव
कितने शिक्षित हो गए , ओढ़ लिए पाश्चात्य परिधान
इस रूढ़ी को लेकिन आज भी , हम दे रहे अधिक सम्मान
अपेक्षाएं बढ़ गई है, खर्चीले होते जा रहे है
सोचो क्या सचमुच हम , सही दिशा अपना रहे है ?

रचयिता
शेखर देशमुख
J-1104, अंतरिक्ष गोल्फ व्यू -2
सेक्टर 78, नोएडा (उ प्र)

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