कत्थई गुलाब-शेष
सुलेखा थक गई है,इस विषय पर बात करने से क़तराते हुए।
निरंजना से ज़रूर कहा था उसने,” नीरू,,शादी करना कोई बड़ी बात नहीं होती,,शादी में सामंजस्य बिठाना बड़ी बात होती है।
माँ और मैं एक दूसरे के पूरक हैं।सोचती भी हूँ तो इस ख़याल से डर जाती हूँ कि ,,इस घर में,,,सिर्फ माँ का होना,,कितना भयावह होगा।
अभी मेरी दुनिया केवल माँ के इर्द-गिर्द है,,मेरा पूरा ध्यान उनके लिए है।माँ नहीं समझ पातीं कि मेरे बिना उनकी ज़िंदगी में केवल सूनापन हीं होगा,,और कुछ नहीं।”
निरंजना उसे समझाती,,
“जो डर तुझे है,वही डर आंटी को भी है लेखा,,,,,,
वो भी तो डरती हैं इस ख़याल से कि जब वो नहीं रहेंगीं, तो तेरा अकेलापन कैसे भरेगा।
ये जो,,एक-दूसरे के लिए चिंता की एक महीन रेखा है न,,ये किसी को भी,,किसी का अकेलापन नहीं भरने देगी।
और, अंततः,,,,
एक दिन माँ की ज़िद के आगे,,सुलेखा के दृढ़ निश्चय ने हाथ जोड़ दिए।
एक प्रस्ताव,,,शादी का,,,जो माँ को बहुत पसंद आया था,,,सुलेखा की भी स्वीकृति की मुहर लग गई उस पर।