औरत
औरत का बदन एक दीवार है
सब उस दीवार तक तो आते है
मगर उसे लांघता कोई नहीं
कभी उस दीवार पर ठोकर मारते हैं
तो कभी वार करते हैं नुकीले हथियारों से
और इन हथियारों के शोर-शराबे से
रूह घबराकर एक कोने में छुप गयी है
और उसने कांपते हुए हाथों से
अपने दोनों कानों को ढक लिया है
उसने अपनी सारी उम्मीदें छोड़ दी है
फिर एक रोज उस दीवार को लांग कर
आती है मृत्यु
उससे मिलती है किसी सखी की तरह
जैसे बरसों से उसे जानती हो
उसके सारे सुख-दुख अपना कर
ले जाती है उसे साथ अपने
इस जमाने की ठोकर और
इस शोर-शराबे से दूर कहीं
दिल में एक मलाल लिए कि
काश….मुझसे पहले
किसी ने इस दीवार को लांघा होता