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14 Mar 2024 · 23 min read

ऐ दिल सम्हल जा जरा

ऐ दिल समरहिल जा जरा

जैसे ही रघुवीर का फोन आया, आदर्शिनी ने जल्दी-जल्दी अपने कपड़े बैग में ठूंसे और कायनेटिक उठाकर आटो रिक्शा लेने चल दी। आटो के साथ ही वापस आ गई, बैग रखा और बस स्टैण्ड की तरफ आदर्शिनी का आटो रिक्शा दौड़ने लगा, उतनी ही तेज गति से आदर्शिनी का मस्तिष्क दौड़ रहा है। शाम के सात बजे घर से निकलकर वह रात ग्यारह बजे इन्दौर पहुँचेगी, रात का सफर हमेशा डराता है लेकिन अति उत्साह और रघुवीर तक पहुँचने की ललक ने उसे यह कदम उठाने पर आमादा कर दिया।

बस स्टैण्ड पर लगी-लगाई बस में बैठ गई, अब वह सकुन से सोचने-समझने लगी, अपने अभी तक के किए गये कार्य पर गौर किया तो लगा सुबह भी जा सकती है, उसे अपने आप पर कोफ्त होने लगी, वह लड़की है कम से कम अपने विषय में सुरक्षा का ख्याल तो रखना ही होगा, पर कहाँ वह तो पवन वेग से ज्यादा तेज चलकर रघुवीर तक पहुँचना चाहती है चाहे जितनी बाधा उसके रास्ते में क्यों न आ जाये।

रघुवीर और वह जब एक ही शहर में थे तो उसे इस दूरी का कभी एहसास नहीं होता था। वह तो बस रघुवीर से रोज मिलना दिनचर्या का हिस्सा मान बैठी थी, और यदा-कदा उपेक्षित भी करती रहती थी। कालेज की पढ़ाई पूरी हुई और चल निकला नौकरी ढूँढने का सिलसिला, इस दौड़ धूप में रघुवीर को दूसरे शहर में नौकरी मिली। रघुवीर के जाने तक भी उसे उसकी दूरी का आभास नहीं था लेकिन
जैसे-जैसे समय गुजरा, यह दूरी खलने लगी और तड़फ की इन्तहा सी होने लगी।

रघुवीर ने ही हैदराबाद में प्राइवेट कम्पनी में आदर्शिनी के लिए आवेदन दिलवाया हुआ है, कल उसका साक्षात्कार है, इसी लिए आदर्शिनी को रात में ही आना पड़ा। वैसे सलोनी को लग रहा था कि सुबह भी चलती तो आराम से पहुँच जाती, कौन सा उसका ही इंटरव्यू का नम्बर पहला आ जायेगा। कई बार तो पूरा दिन बैठे रहते हैं फिर भी नम्बर नहीं आता दूसरे दिन पहुँचों।

एक रात रघुवीर के साथ रहने की उसकी अति तीव्र इच्छा ने उसे इस खतरनाक निर्णय को लेने के लिए प्रोत्साहन दिया और अब वह अपने ही निर्णय पर पछता रही है।

रघुवीर लेने आ गया, आटो में बैठकर दोनों रघुवीर के घर पहुँचे तो छोटी सी गली में मकान मालिक के गैरेज में बने कमरे में रघुवीर ने अपना घर बना रखा है। सलोनी को पता तो था कि किराये का कमरा है पर फिर भी पहली बार रघुवीर के घर आना और उसके सपनों की जबरदस्त दखलन्दाजी ने उसका दिमाग भी सातवें आसमान पर पहुँचा दिया था। हल्का झटका तो लगा आदर्शिनी को लेकिन उसने अपने भाव बखूबी छुपा लिए।

उस रात दोनों ने जागकर काटी। आदर्शिनी ने साक्षात्कार की तैयारी की, रघुवीर उसे चाय बना कर रात में देता रहा, दोनों को नींद आने लगी तो छत पर टहल आते। आदर्शिनी ने सुबह नाश्ता बनाया और दोनों नौ बजे तक अपने-अपने गन्तव्य पर निकल गए।

आदर्शिनी का साक्षात्कार ठीक गया है, लेकिन उसे लग रहा है कि शायद यह नौकरी उसे नहीं मिलेगी। जिस ऑफिस में वह काम करेगी उसे देखकर उसका मन छोटा हो गया था। वह चाहती थी कि मेट्रो शहरों की तरह ऑफिस भी बढ़िया और सुन्दर सा हो, जिससे काम करने में मन लगा रहे। आज के ऑफिस को देखकर उसका मन बुझ गया। उसे लगा कि हर जगह क्या ईश्वर ने ये सोच रखा है कि उसके मन माफिक कहीं भी जगह नहीं देगा, ‘अगर नाराज हो तो बताओ, मैं मना लेती हूँ,‘ सलोनी के हाथ जोड़ उपर देख नमन् किया।

आदर्शिनी बस स्टैण्ड की लाइन में लगी है। रघुवीर ने घर पहुँचने के लिए बस नम्बर दिया है। रघुवीर की नौकरी। भी प्राइवेट ही है, वर्ना वह आदर्शिनी के साथ आता। आदर्शिनी ने ही आग्रह करके उसे ऑफिस भेज दिया था। अभी दोपहर के तीन बजे हैं। रिजल्ट कल लगने वाला है तो क्यों न वह पता करके ही जाये। अब उस पर थकान व नींद की जोरदार मार पड़ रही है।

घर की चाबी मकान मालिक को दे गये थे। आदर्शिनी ने चाबी ली तो मकान मालकिन अम्मा ने पूरे परिवार की जानकरी ले ली। रघुवीर को कैसे जानती हो, क्या रिश्ता है, आदर्शिनी ने जैसे तैसे अपना पिण्ड छुड़ाया और कमरे में आ गई। एक ग्लास पानी पिया और बिस्तर पर लेट गई। थकान व रात के जागरण की वजह से वह कब सो गई जान ही नहीं पाई।

शाम सात बजे रघुवीर लौट आया, चाय पीते हुए साक्षात्कार की बातें आदर्शिनी ने बताई। आज रघुवीर सोचकर आया था कि आदर्शिनी आज की रात तो सोयेगी, वह पास में ही रह रहे अपने दोस्त को रात में उसके यहाँ सोने आने की बात लौटते व़क्त कह आया था। आदर्शिनी को भी आज की रात साथ बिताने में अजीब सा संकोच हो रहा है।

शाम का खाना होटल से मंगवा लिया गया है, खाना खाकर दोनों छत पर टहलते रहे, रात ग्यारह बजे रघुवीर अपने दोस्त के कमरे पर चला गया। आदर्शिनी चूँकी सो ली थी अतः उसे नींद नहीं आ रही है फिर भी उसने रघुवीर को रोका नहीं क्योंकि पिछली रात वह भी तो जागा था।

रघुवीर के जाते ही आदर्शिनी को अपने भविष्य की चिन्ता सताने लगी। रघुवीर के साथ जिन्दगी कैसी गुजरेगी इसका खाका बहुत कुछ उसके सामने स्पष्ट हो गया है। नये सिरे से सारा घर जमाना और तिनका-तिनका जोड़ना, कितना मुश्किल काम होगा, सोचकर ही आदर्शिनी की रूह कांप गई । माता-पिता के जमे जमाये घर को देखकर हर लड़की अपने घर की भी वैसी ही कल्पना कर लेती है और आवश्यकता की वस्तुओं को अपने विचारों में नजर अन्दाज कर देती है, जिससे उनकी सोच शुरू होती है वह है घाटियों में दौड़ना, भागना, घूमना, सपनें बुनना, और प्यार ही प्यार पाना। ऐसे में एक-एक सामान के लिए यहाँ तक कि खाना बनाने के लिए जंग खायें गैस चुल्हे का इस्तेमाल करना पड़ेगा सोचकर आदर्शिनी को अजीब घबराहट होने लगी।

रघुवीर बता रहा था कि यह कबाड़ी के पास से सेकेण्ड हैण्ड में लिया है, खाना पकाने के लिए गैस चुल्हा भी सेकेण्ड में खरीदना पड़े तो न जाने जीवन में कैसी-कैसी विपदाओं का सामना करना पड़ सकता है, जाने कब तक आदर्शिनी इसी तरह की बातों में उलझी रही। तर्क-कुतर्क से वह स्वयं जूझती, निकलती रही, इन सब बातों में रघुवीर का ख्याल आते ही मन बागी हो जाता और हर मुश्किल झेलने के लिए तत्पर हो जाती। वही मस्तिष्क फिर कोई जोरदार तर्क देकर आदर्शिनी को डिगाने का प्रयास करती। काफी देर हो गई आदर्शिनी ने उठकर पानी पीया और सोने का प्रयास किया, कुछ देर की बेचैनी के बाद वह सफल भी हो गई।

सुबह उठकर उसने चाय पी और रघुवीर के आने से पहले तैयार हो गई।

‘‘रात नींद आई या नहीं।‘‘… रघुवीर ने आते ही पूछा।

‘‘काफी देर बाद आई।‘‘

‘‘आज तुम्हें रिजल्ट पता करने कब जाना है।‘‘

‘‘ग्यारह बजे के बाद बताया है।‘‘

‘‘तुम पहुँच जाना मुझे आफिस जाना होगा।‘‘…

‘‘रघुवीर, मैं सोच रही हूँ कि जो भी रिजल्ट हो, मैं आज ही घर लौट जाना चाहती हूँ।”…

‘‘आज रूक जाती, कल रविवार है, पुरा दिन हम साथ बिताते,”… रघुवीर की आवाज में समय नहीं दे पाने की कसक झलक रही है।

‘‘नहीं रघुवीर, घर पर सभी परेशान होगे मैं आज ही निकलूँगी।‘‘…आदर्शिनी ने दृढ़ता पूर्वक कह दिया।

‘‘ठीक है।‘‘…

यथा समय आदर्शिनी घर के लिए निकल गई, रघुवीर आफिस होने की वजह से छोड़ने नहीं आ पाया।

आदर्शिनी की माँ नौकरी करती है। चार माह पूर्व ही उनकी पोस्टिंग दूसरे शहर हो गई है वह आना जाना करती है। शाम को अक्सर देर हो जाती है। आदर्शिनी के पिता की जनरल स्टोर की दुकान है। रात दस बजे तक ही घर लौटना हो पता है।

आदर्शिनी का भाई संजीव इन्जिनियरिंग की पढ़ाई करने बेंगलोर में पिछले वर्ष से ही पढ़ रहा है। आदर्शिनी आजकल पूरे समय घर पर अकेली रहती है। छोटे-मोटे कोर्स ज्वाइन कर लेती है और आवेदन भरती रहती है। माँ पिताजी उसकी शादी करना चाहते हैं लेकिन बिना कमाऊ लड़की की शादी होना आजकल आसान काम नहीं रह गया है। यह बात आदर्शिनी भी अच्छी तरह जानती है। वह शादी के लिए इन्कार और अपने पैरों पर खड़े हो जाने देने का वह आग्रह माता-पिता से कर चुकी है। चूंकि माता-पिता भी प्रयास कर रहे हैं फिर भी वह अच्छा घर वर नहीं तलाश पा रहे, इसलिए उन्होंने सोचा कि क्यों न इन सबके चलते अगर आदर्शिनी को नौकरी मिल जाती है तो बुरा क्या है।

आदर्शिनी को नौकरी मिल गई। उसने एक पत्र रघुवीर के नाम लिखकर छोड़ा और आपने घर को लौट आई, आगामी आठ दिनों के अन्दर उसे नौकरी पर आना है, तनख्वा अच्छी है इसलिए सलोनी ने सोचा, अभी समय काट लेते हैं। रघुवीर को कमरा देखने का कह आई है उसके फोन के इंतजार में पांच दिन निकल गये। आदर्शिनी को चिन्ता होने लगी, मकान न मिला तो वह कैसे रह पायेगी। छटवें दिन रघुवीर का फोन आया। रघुवीर के घर के पास ही में एक कमरा मिल गया है ।

“आदर्शिनी, एक घर देखा है आकर देख लेना, पसंद नहीं आया तो दूसरी जगह तलाश लेंगे।”…

आदर्शिनी आठवें दिन ही सामान के साथ रघुवीर के घर पहुँच गई। निश्चित हुआ था कि चूँकि नया घर देखा हुआ नहीं है, अतः रघुवीर के घर ही सामान रखा और रघुवीर का इंतजार करने लगी।

शाम को दोनों घर देखने गये, पसंद क्या रहने की जगह चाहिए थी सो है। रघुवीर का कमरा भी पास में ही है, यह बात महत्वपूर्ण है।

रघुवीर के व्यवहार से यह नहीं लग रहा था कि वह इस बात से खुश है कि आदर्शिनी को पास में बसा कर अपनी जद्दोजहद वाली ज़िन्दगी दिखाए, लेकिन फिर सोचता अगर अभी ही यह सब देख, सुन लिया तो बुरा क्या है ज़िन्दगी की सड़क कितनी उबड़-खाबड़ है यह जानना आदर्शिनी के लिए बहुत जरूरी है। जिसके साथ ज़िन्दगी गुजारना है वह अगर यर्थाथ में जी कर ज़िन्दगी की सच्चाई जाने तो उसे समझाने-समझने के लिए मसक्कत नहीं करना पड़ती है। ज़िन्दगी कमरेनुमा घर से दफ्तर के बीच टहलती रही और दोनों बेहतर नौकरी की तलाश में लगे रहें।

इस बीच आदर्शिनी दो बार घर हो आई। उसकी मम्मी भी उसके पास रहकर चली गई। रघुवीर ने अपना कमरा बदल लिया है, आदर्शिनी के पड़ोस का कमरा ले लिया गया है। अब दोनों की मुलाकातें और लगभग सुबह – शाम का खाना साथ होने लगा है।

आदर्शिनी के दफ्तर में नये बड़े बाबू प्रथम पंडित आया हैं। वह जितने, ऊंचे पूरे स्मार्ट है, उतने ही मृदुभाषी, बोलते वक्त लगता है शहद में डुबोकर एक-एक शब्द कहा जा रहा है। एक नजर में आदर्शिनी को वह अच्छे इंसान लगे। पूर्ण व्यक्तित्व का धनी यह इंसान जहाँ भी जाता है सभी की नजर अपनी तरफ खींच लेता है, ईश्वर ने भरपूर सौन्दर्य के साथ, इन्सानियत
का ऐसा उपहार प्रथम पंडित को दिया है जिसका कोई जवाब नहीं है। किसी की भी फाइल उनके टेबल पर पड़ी नहीं रहती वह फौरन उसे बड़े साहब तक पहुँचा देता हैं।

आदर्शिनी जब भी प्रथम पंडित को देखती मन में रघुवीर के नाम की जड़ी पर्ची फड़फड़ाती सी लगती, मानो तेज हवा के झोंके से पर्ची उड़कर जाने कहाँ चली जायेगी और उसी झन्झावत आँधी में एक पर्ची प्रथम पंडित की उड़कर आती है और मन में उसी जगह चस्पा हो जाती है जहाँ रघुवीर के नाम की पर्ची लगी है आदर्शिनी को अपनी इस दिल मैं उठ रही आँधी से शुरू में कोफ्त होती रही लेकिन अब वह इस बात की आदी सी होती जा रही है।

आदर्शिनी को अपने यौवन के दिन याद आते जब वह सुबह दोपहर शाम तक नये चेहरे में अपने प्यार को तलाश करती डोलती फिरती। लेकिन एक भी चेहरा स्थाई नहीं हो पाया और सभी जाने कहाँ गुम हो गये। कालेज में रघुवीर मन को भाने लगा तो अब प्रथम पंडित अच्छा लगने लगा।

अपने मन की उच्श्रृंखलता से कभी-कभी खुद ही परेशान हो जाती है जाने क्यों यह मन मुआ उसे एक जगह टिकने ही नहीं देता है। यह जीवन के कैसे रंग है जहाँ मन का भटकाव चलता रहता है वह एक उपेक्षित सी हुक भरती है और पुनः अपने रोजमर्रा के काम निपटाने लगती है।

रघुवीर ने एक इन्टरनेशनल कम्पनी ज्वाइन कर ली है जिसमें उसे छः माह के लिए शीप पर ही रहना होगा, कान्ट्रेक्ट बेस पर यह नौकरी करना रधुवीर ने अच्छे अनुभव के संकलन के तहत स्वीकार की है। उसे आदर्शिनी को एक अच्छा जीवन देने व दोनों की खुशाहाल ज़िन्दगी के लिए प्रयास तो करना ही होगा। आदर्शिनी ने भी कुछ समय सोच-विचार के लिए लिया फिर भविष्य के सुनहरे सपनों को साकार करने की रघुवीर के प्रयास को भारी मन से स्विकृति दे दी।

रघुवीर अपनी नई नौकरी पर चला गया। आदर्शिनी का दिल कुछ समय रघुवीर की याद करता रहा, दुःखी हुआ, रघुवीर के खत आते, फोन पर बातें होती धीरे-धीरे आदर्शिनी को रघुवीर से दूर रहकर जीने की आदत पड़ गई ।

यह मन चंचला है जो विकल्प ढूंढता रहता है, प्रथम पंडित में खुशी ढूंढने के प्रयास करने लगी। प्रथम पंडित मस्तमौला है जो अपने में ही रहने वाला, किसी भी दायरे में नहीं बन्धता, वह स्वच्छन्द प्राणी अपनी धुन का मनमौजी इंसान हैं, कभी भी किसी विवाद में उलझना या विवादित होना उनका गुण नहीं है। आदर्शिनी बस ख्याली पुलाव
पकाती, और जलाती रही पर हाथ एक भी दाना नहीं लगा।

शिप पर हमेशा समय की पाबंदी होती है फिर भी रघुवीर को जब भी मौका मिलता आदर्शिनी से बात करता। वह अपने काम के नये नये रोमांचित कर देने वाले किस्से सुनाता। आदर्शिनी को भी कभी-कभी रघुवीर की जबरदस्त याद सताती तो वह उससे घन्टों बात करती। कुछ समय से रघुवीर की अनुपस्थिति और उससे जी भरकर बात न कर पाने की वजह से झुंझलाहट होने लगती है। वह अपने से ही तर्क-कुतर्क करती। कभी अपने को झाड़ देती।

“कितनी ईमानदार हो रघुवीर के लिए जो आदर्शिनी पर भरोसा करे।‘ क्या वह भी तो अपनी आँखें दूसरी जगह नहीं लड़ा सकता, क्या वह सुन्दर नहीं है? उस पर लड़कियाँ जान नहीं छिड़कती, सोचते-सोचते आदर्शिनी अपने पर ही नाराज होती, पहले खुद रघुवीर के प्रति समर्पण का भाव जगाओ, तब जाकर रघुवीर से उम्मीद लगाओ, वह अपने ही सबाल-जबाब में उलझी खिन्नता के कगार पर पहुँच जाती।

इस बीच आदर्शिनी की माँ ने आदर्शिनी के लिए घर-वर तलाश लिया, आदर्शिनी की स्वीकृति की उन्हें पूरी उम्मीद थी, लेकिन आदर्शिनी ने मना कर दिया। वह मना तो कर गई लेकिन वह अब रघुवीर से जानना चाह रही है कि क्या वह भी उसका इंतजार कर रहा है ? लेकिन मन का चोर यह बात स्पष्ट पूछने नहीं देता और अपनी इधर-उधर की भटकने की आदत से बाज भी नहीं आता।

रघुवीर अब आदर्शिनी के फोन पर बात करने से परेशान रहने लगा। जब भी बात होती रघुवीर की सहकार्मी बानी को लेकर आदर्शिनी काफी तर्क-कुतर्क कारती। रघुवीर ने अपने जीवन की नाव में आदर्शिनी को सवार किया लेकिन आदर्शिनी की चंचलता, स्वतन्त्रता ने कभी भी उसे स्थाईत्व नहीं दिया, फिर जीवन को वह जी रहा है उसमें आदर्शिनी का साथ और समर्पण दोनों नहीं मिल रहा है।

रघुवीर ने अपना मूल्याकंन किया और आदर्शिनी को सोचने का समय देना उचित समझा। आदर्शिनी से औपचारिक बातों तक का सम्बंध रह गया।

आदर्शिनी रघुवीर को लेकर अब निश्चिन्त होना चाह रही है, उसे लगने लगा है कि रघुवीर ही है जो उसका जीवन संवार देगा, लेकिन रघुवीर का उखड़े-उखड़े बात करना, उसे खलने लगा है।

रघुवीर दो वर्ष से घर नहीं गया है, जबकि छः माह में घर आया जा सकता है, इन सब बातों से आदर्शिनी का दिल बैठने लगता है अपने
को ही लताड़ती रहती है कि क्यों उसने ही रघुवीर के प्रति ईमानदारी नहीं रखी? प्यार दिमाग से होता है या दिल से? उसका तो दिल दिमाग दोनों ही उथले हैं। दोनों में प्यार करने की गहराई नहीं है, और न ही
समर्पण का स्थाईत्व, क्यों न रघुवीर उससे दूर जायेगा, आदर्शिनी ने अपने पैरों पर आप कुल्हाड़ी मारी है जाने अपने बारे में क्या – क्या साचती रहती।

‘‘आदर्शिनी जी, शादी में आइए जरूर,”… ऑफिस में प्रथम पंडित ने कल अपनी शादी का कार्ड पकड़ाते हुए कहा, तब जाकर जमीन पर आई। उसे अपने रूप का जादू चलने का गुमान एक पल में ही उड़न छू होता नजर आ गया।

आदर्शिनी को इन सब बातों से झटका अवश्य लगा लेकिन अन्तर्मन से वह दुःखी भी हुई, अब उसका मन रघुवीर में अटका रहता, यदा कदा वह फोन पर बात करती तो खुद भी औपचारिक हो जाती, खोद-खोद कर कोई बात सावन से नहीं पूछती, उसे पता है जैसे वह भटकी रहती है, रघुवीर भी तो भटक सकता है, इसमें रघुवीर का क्या दोष।

माँ दबाव डाले हुए है कि आदर्शिनी शादी कर ले, आदर्शिनी अभी टालते रहना चाहती है। इस बीच आदर्शिनी ने नेट की परीक्षा पास कर ली, अब वह कालेज में लेक्चरर बनने के लिए प्रयास करने लगी। वह चाहती है कि एक स्थाई नौकरी हो जाये, फिर जीवन के अन्य पहलुओं पर सोचा जाये।

समय बीतता गया, आदर्शिनी पैंतीस वर्ष की हो गई। माँ ने अब शादी कर लेने की जिद छोड़ दी है। व आदर्शिनी के भाई की शादी के लिए लड़की तलाश रही हैं। आदर्शिनी के भाई संजीव ने भी अपनी पसन्द की लड़की से ब्याह करने की बात कही और फटाफट शादी कर ली है। आदर्शिनी सोचती उससे तो उसका भाई संजीव ही ठीक है,
जिसने अपनी पसन्द को रिश्तें का नाम तो दे दिया।

समय गुजरता गया और ज़िन्दगी की रफ्तार एक ही ही चलती रही।
आदर्शिनी के कालेज से ग्रुप घूमने के लिए जाने वाला है। अकेले वह इस ग्रुप के साथ ही जायेगी, यह विचार कई वर्षों बाद रोमांचित कर गया है। आदर्शिनी को जब इस ग्रुप का संचालन करने का मौका मिला तो उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया।

यह टूर दरगाह शरीफ हज़रत ख्वाजा गरीब नवाज अजमेर जाना तय हुआ। अजमेर शहर की तो आबो हवा ही निराली हैं, बाहुत दूर ही गाड़ी छोड़ दी गाई, पैदल चले तो देखा, दरगाह शरीफ हज़रत ख्वाजा गरीब नवाज की मजार तक रास्ते में दोनों तरफ दुकाने सजी हैं । दूर से ही गुम्बाद दिखई दे रहा है।बेहद खूबसूरत नज़ारा, रंग बिरंगे रंगों के सामानों से सजा आँगन सा प्रवर्तित हो रहा है।

विशालकाय वंदनवार से सजा मुख्य प्रवेश द्वार है, लौभान की खुशबू से पुरा वातावरण खुशबूनुमा हो रहा है। मन शांती सा अनुभव करता है।

गाईड करना ही था, तलाश शुरू हुई और एक बुजुर्ग व्यक्ति से मुलाकात हो गई, उन्होंने जिस दिलचस्पी से बताना शुरू किया की कोई भी एक पल को ग्रुप से अलग नहीं हो सका।

गरीब नवाज के गुम्बद का अन्दरूनी हिस्सा संगे बिस्ता है जिस को चूने से बनवाया गया है और बाहर का हिस्सा ईंटों से तैयार किया है। डांट पर चूने का मसाला है, इस पर घुटाई का काम है। यह एक
निहायत शानदार गुम्बद है, अन्दरूनी गुम्बद सोने के पानी और रंग-बिरंगे रंगों से खूबसूरती से उकेरे गये हैं जिनका रंग अब फ़ीका पड़ गया हैं।

सफेद गुम्बद पर सोने का बड़ा शानदार ताज है चारों तरफ सुनहरी कलियाँ बनाई गई है। यह ताज नवाब हैदर अली के भाई कलबे अली खान रायपुर ने चढ़ाया था।

मज़ार के अन्दरूनी हिस्से में सुनहरी व लाजौवरी का काम है जो नवाब मुश्ताक अली खान वालिए, रियासत रायपुर ने करवाया था। छत में काशानी मखमल की सुनहरी छत गीरी लगी है। उसमें सोने की जंजीरों से कुमकुमे आवेजा हैं। इस के अलावा चांदी के बहुत से कुमकुमे लगे हैं और दीवार में अन्दर सुनहरी चौखटों में शीशे लगे हैं।

मज़ार शरीफ संगे मरमर का बना है, इसमें संगे मूसा व फिरोजा वगैरह की पच्चीकारी है। मजार शरीफ पर हर वक्त कीमती गिलाफ रहते
हैं। मज़ार के चारों तरफ चांदी का कटघरा है। अन्दरूनी गुम्बद के चारों तरफ सोने के पानी से यह शेर लिखा है –

‘‘ख्वाजा ख्वाजगाहे मोइनुद्दीन‘‘
‘‘अशरफ औलियाऐ बरूहे ज़मीन ‘‘

इसके बाद निजाम गेट है जिसे जनाब उस्मान अली खां साहब वालिए दक्कन ने तीन साल में पूरा करवाया था। इसकी बुलन्दी, महराब की चौड़ाई में एक खूबसूरत और शानदार बारादरी है जिस में नौबत खाना है। यहाँ शहनाई के साथ पांच वक्त नौबत बजाई जाती है।

नक्कार खाना शहजहानी, शहजाँह की बेटी जहाँआरा ने बनवाया है। दरगाह के अन्दर जाने का दरवाजा सुर्ख पत्थर का बना हुआ है, और फर्श संगमरमर का है।

इसकी महराब पर एक प्रार्थना लिखी हुई है दरवाजे पर एक बारादरी है जिस में नौबत खाना है।

बुलन्द दरवाजा सुलतान महमूद खिल्जी और उनके बेटे गयासुद्दीन खिल्जी का बनवाया हुआ है। इसमें संगे सुर्ख लगा हुआ है। फर्श संगमरमर और मूसा का है। बुर्जो पर सुनहरे कलश है और दोनों तरफ सीढ़ियाँ हैं। यह तमाम दरवाजों से ऊँचा है इसलिए इसको बुलन्द दरवाजा कहते हैं।

अहाता चमेली और मस्जिद सन्दल खाने के करीब मर्शिक में एक छोटी सी मस्जिद है। पहले यह कच्चे चूने की थी फिर इसके बाद इसे संगमरमर से बनवाया गया, इसके दोनों तरफ हुजरे है। यहाँ ख़्वाजा गरीब नमाज़, नमाज़ अदा किया करते थे, इसलिए इसका नाम औलिया मस्जिद पड़ा।

अकबरी मस्जिद, अकबर बादशाह ने जहांगीर असरफ औलियाऐ बरूहे ज़मीन, इसके बाद निजाम गेट है जिसे जनाब उस्मान अली खां साहब वालिए दक्कन ने तीन साल में पूरा करवाया था। इसकी बुलन्दी, महराब की चौड़ाई में एक खूबसूरत और शानदार बारादरी है जिस में नौबत खाना है। यहां शहनाई के साथ पांच वक्त नौबत बजाई जाती है

अकबरी मस्जिद, अकबर बादशाह ने जहांगीर की पैदाईश पर बनाई थी, इस का जश्ने पैदाइश हजरत ख़्वाजा गरीब नवाज़ के दरबार में हुआ। इज़हारे तश्क्कुर के लिए यह मस्जिद संगे सुर्ख से बनवाई गई, इसके सहन में एक हौज है। यहाँ का सहन बहुत बड़ा है। मस्जिद के दरवाजे की बनावट फतेपुर सीकरी की मस्जिद के दरवाजे से मिलती है। दोनों कोनों पर संगमरमर की खूबसूरत मीनार है। जुनूबी महराबों पर संगमरमर और लाजोरी तथा लाखी पत्थर की पच्चीकारी
बहुत ही उम्दा फनकारी का नमूना है।

बुलन्द दरवाजे से आगे बढ़कर दोनों तरफ दो बड़ी देगे जीनेदार ऊँचे चुल्हों पर लगी हैं।
मर्शिक देग छोटी और मग्रिबी देग बड़ी देग, जलालुद्दीन
अकबर शहँनशाहे हिन्द ने चित्तौड़गढ़ की फतह में मन्नत के बतौर चढ़ाई थी। इसमें सौ मन चावल पक सकता है। छोटी देग को सुल्तान जहांगीर ने आगरा से लाकर यहाँ लगाया है। इसमें खाना पकवाकर गरीबों को बाँटा गया था।

देगों के सहन में आठ कोनों वाला एक छतरीनुमा गुम्बद बना है। इसमें एक बड़ा चिराग रखा हुआ है। इसे सहने चिराग कहा जाता है। इस चिराग को अकबर बादशाह फतेह चित्तौड़गढ़ से लाए थे जिसे उन्होंने नजरे दरबार ख़्वाजा कर दिया था।

सहने चिराग से थोड़ा फासला तय करने के बाद दो दुकानों के दरमियान एक दरवाजा आता है जिससे गुजरने के बाद मग्रिब की तरफ एक छोटा सा जालीदार आहाता है जिसमें चमेली के पेड़ लगे हैं। पेड़ के साए में मज़ार है। कहा जाता है यह मज़ार गरीब नवाज की दोनों बीबियों की है।

महफिल खाना खूबसूरत इमारत है नबाब बषीरूद्दौला ने ख़्वाजा गरीब नवाज के दरबार में बेटे के लिए दुआ मांगी थी, अस्सी साल की उम्र में उनको बेटा अता किया जिसकी खुशी में यह मुरब्बानुमा इमारत बनवाई, इसके चारों तरफ गैलरी है। उर्स के दौरान इसमें कव्वालियाँ होती हैं।

महफिल खाने के सामने एक हौज है आमतौर पर यह खुश्क हो जाता है मगर उर्स के दिनों में अकीदतमन्द जाएरीन सक्कों को पैसे देकर इसे पानी की मश्कों से भरवा देते हैं।

इस हौज़ की छतरी शहँशाह जार्ज पंचम की मल्लिका की तरफ से बनवाई गई है मल्लिका मैरी ने दरबार ताजपोशी से वापसी पर दरगाह ग़रीब नवाज़ में हाजिरी दी थी और पांच सौ रूपये हाजिरी अपनी तरफ से बतौर नजराना दिया था इस रकम में कुछ और रकम दरगाह ने मिलाकर इस हौज पर साइबान डलवा दिया था।

शही हौज के मशिक की तरफ ख़्वाजा गरीब नव़ाज का लंगरखाना है इसमें दो लोहे के कढ़ायें चढ़े रहते हैं जिसमें रोजाना सुबह-शाम ढाई मन लंगर पकता है इस लंगर से शहर के यतीम और बेवा औरतें, फकीर और मिसीकीन परवरिश पाते हैं।

दरग़ाह शरीफ़ के अन्दर अहाते में दाखिल होने के बाद सबसे पहले मस्जिद संदलखाना आता है इसको सुल्तान महमूद खिलजी ने अजमेर की फ़तह पर खुशी में रोजा मुनब्बरा के सिरहाने बनवाया था।
बेगमी दालान के पास निज़ाम सक्के की कब्र है इसने हुमायूँ बादशाह
दरग़ाह शरीफ़ के अन्दर अहाते में दाखिल होने के बाद सबसे पहले मस्जिद संदलखाना आता है इसको सुल्तान महमूद खिलजी ने अजमेर की फ़तह पर खुशी में रोजा मुनब्बरा के सिरहाने बनवाया था।

बेगमी दालान के पास निज़ाम सक्के की कब्र है इसने हुमायूँ बादशाह
की जान बचाई थी जिसके सिले में निज़ाम ने एक दिन हिन्दुस्तान पर हुकूमत की और चमड़े का सिक्का चलाया इसलिए उसे एक दिन का बादशाह कहा जाता है, मजार पर पहले खूबसूरत गुम्बद था जिसे औरंगजेब ने हटवाया मजार का चबूतरा संगमरमर का है जो चारों तरफ से जालीदार कटघरे का है।

हजरत ख्वाजा के मश्रिकी दरवाजे के पास एक वसीअ और आलीशान दालान है जो शहज़ादी जहाँआरा बेगम ने बनवाया छत और खम्बों पर निहायत खूबसूरत नक्काशी निगार बने हुए हैं दालान तीन तरफ से खुला हुआ है, बायीं तरफ ख़्वातीन का इबादतखाना है जहाँ औरतें तिलवते कुरआन पाक करती हैं।

हमीदिया दालान मौलाना सैय्यद अब्दुल हमीद साहब ख़ादिम दरगाह ख्वाजा गरीबे नवाज़ ने जाएरीन के लिए तामीर कराया था जहांँ उर्स के समय में जाएरीन ठहरते हैं बराबर में पानी के नल लगे हुए हैं।
कर्नाटकी दालान रोजा मुकद्दस की जुनूबी जानिब ये खूबसूरत दालान अरकाट के नबाब ने संगमरमर से तामीर कराया था इस इमारत में उर्स के दौरान कव्वाली भी होती है। आम दिनों में इसके बाहरी हिस्से में कव्वाल रोजा मुनव्वरा की तरफ मुँह करके कव्वालियाँ गाते हैं।

जन्नती दरवाजा शाहजहानी मस्जिद के सामने है। इस दरवाजे पर सुनहरी और रंग बिरंगे फूल बूटे बने हुए हैं। कहते हैं जो इंसान इस दरवाजे से सात मर्तबा गुजरे वह जन्नत में जाएगा।

झालरा दरगाह शरीफ की जुनूब में एक गहरा चश्मा है जो कभी नहीं सूखता, दरगाह शरीफ के इस्तेमाल का पानी यहीं से आता है झालरा की मजबूत चार दीवारी शाहजहाँ ने बनवाई थी दरगाह शरीफ में जामा मस्जिद के पास एक चौड़ा जीना झालरा में उतरता है जिसमें से शहर के हिन्दू-मुसलमान पानी भरते हैं।

चार यार मस्जिद शहजहानी से मग्रिब की तरफ हैं इस जगह फुंकरा और ख्वाजा गरीब नवाज के साथ आने वाले दफन हैं इसी जगह पर मौलाना शमसुद्दीन की मज़ार है।

सुल्तान शमसुद्दीन अलतमिश ने लाल पत्थर की ये मस्जिद बनवाई थी इस मस्जिद का ढाई दिन का झोपड़ा कहते हैं इस मस्जिद में आने जाने के दो दरवाजे़ हैं बीच में मेहराब, दोनों तरफ लाल पत्थरों की मीनार है

सुल्तान शमसुद्दीन अलतमिश ने लाल पत्थर की ये मस्जिद बनवाई थी इस मस्जिद का ढाई दिन का झोपड़ा कहते हैं इस मस्जिद में आने जाने के दो दरवाजे़ हैं बीच में मेहराब, दोनों तरफ लाल पत्थरों की मीनार है बीच में आम जबान गुम्बद है और गुम्बदे बस्ती के दोनों तरफ तीन छोटे गुम्बद हैं मस्जिद की महराब पर सूरः इन्नफतहना और सने तामीर बाई मेहराब पर सूरः मुल्क और बीच की मेहराब पर सुल्तान अलतमिश का नाम ख़ताबात और अल्क़ाब लिखा हुआ है।

मस्जिद तिलोक बाई मशहूर गीतकार तानसेन की बेटी तिलोक बाई ने यह मस्जिद बनवाई थी।

हजरत बीबी हाफिजा जमाल हजरत ख़्वाजा गरीब नवाज़ की साहबजादी थी, मजार मुबारक संगमरमर से बना है आपके मजारे मुकद्दस के करीब दो छोटी कब्रे हैं वह आपके साहिबज़ादों की हैं।

हजरत सय्यद बदरूद्दीन शाह मदार अरसे तक अजमेर शरीफ में रहे और इबादते इलाही में चिल्ले किए चिल्ले गाह का गुम्बद और छतरी काबिले तारीफ है।

मकबरा हूर निसा बेगम शाहजहाँ बादशाह की बेटी थी, जहांगीर अपनी इस पोती से बहुत मोहब्बत करता था हूर निसा बेगम ने उन्नीस वर्ष की उम्र में उस वक्त वफात पाई जब जहांगीर अपने कुनबे समेत अजमेर शरीफ में हाजिर था।
जहाँगीर को इसकी वफात से बहुत रंज हुआ, हूर निसा बेगम को हजरत ख्वाजा गरीब नवाज़ के मज़ार के मग्रिबी दफन किया गया संगमरमर का मकबरा बना, किवाड़ भी संगमरमर के बनाए गए हैं मज़ार के तावीज़ पर एक कीमती हीरा जड़ा है मग्रिबी दरवाजा बन्द कर दिया गया है।

सुल्तान-उल-हिन्द ख्वाजा गरीब महबूब-ए-इलाही यादे इलाही और विसाले इलाही से खुश रहने के लिए अनासागर के किनारे पर सदा बहार पहाड़ी की एक ख़ामोश और पुरसुकून घाटी में चले जाते थे यह जगह बहुत खतरनाक थी, जहाँ हज़रत ख्वाजा गरीब गुम रहते थे महराब खान सूबेदार अजमेर शरीफ ने इस मुकद्दस मुकाम पर पत्थर का एक अहाता बनवा कर इस पर एक गुम्बद बनवा दिया जिसके नीचे एक पत्थर रखा है जिस पर गरीब नवाज़ इबादत किया करते थे यही पास में हजरत कुतुब साहब की छोटी चिल्ले की यादगार में बनवाई गई है यह जनाब ख्वाजा नवाज के साथ बने रहते थे।

अहाता नूर में ख्वाज़ा गरीब नवाज के रोजा मुबारक के जुनूबी शिमाली सिम्त में संगमरमर की एक बारादरी है इस अहाते में जो दरवाजे हैं उन पर सोने के कलम लगे हुए हैं।

अकबरी महल के पैरों की तरह यह बाग आज भी अपनी ताजगी, खूबसूरती और कशिश के ऐतबार से अजमेर शरीफ के तमाम बागों में सब से ज्यादा खूबसूरत है दालान खुशनुमा और नहरें बहुत हसीन मंजर पैदा करती हैं।

जहांगीर बादशांह अजमेर शरीफ में दाखिल हुआ तो इसने किला-ए-तारागढ़ के मशिक में चश्म-ए-नूर के करीब एक आलीशान महल बनवाया इस महल में सिर्फ एक दरवाजा और लाल पत्थर का दालान बाकी रह गया है।

बेला और पुष्कर तालाब दोनों अंडे की शक्ल के हैं। पुष्कर के तलाब के किनारे पर अकबर बादशाह ने दालान और इमारतें बनवाई थी जो वीरान पड़ी रहीं अब यह होटलों में बदल गई हैं औरंगजेब बादशाह ने लाल पत्थर की मस्जिद पुष्कर तालाब के किनारे बनवाई थी जो आज भी मौजूद है।

ढाई दिन का झोपड़ा के सिम्त कान बावड़ी बनी है जिस की वजह यह बताई जाती है कि एक बुढ़िया ने सूत की अंटी अलतमिश को नज़र की थी, सुलतान ने मालूम किया कि क्या चाहती हो बुढ़िया ने जवाब दियाकृ मेरे नाम की एक बावड़ी बनवा दी जाय। सुल्तान ने उसकी तमन्ना पूरी कर दी इस तरह यह कान बावड़ी मशहूर, देखने के काबिल जगह बन गई।

चिल्ला पीराने पीर गौसुल आजम यहाँ हजरत मुबारक की एक ईंट दफन है। करीब ही एक सय्यद साहब की मज़ार है। दालान का सहन देखने से बहुत खूबसूरत है। यह जगह पहाड़ पर है, इस का रास्ता दरगाह से जाता है।

सुल्तान शहाबुद्दीन गौरी ने अजमेर फतह करने के बाद अजमेर के हाकिम राजपूत राजकुमार को हटा कर सय्यद हुसैन मुशहदी खुनक सवार को अजमेर का किलेदार बनाया। अचानक रात को राजपूतों ने हज़रत सय्यद हुसैन को शहीद कर दिया। ख्वाजा गरीब नवाज़ ने नमाजे जनाजा पढ़ाई और खुद दफन किया, एक मुनसिबदार इतबार खां ने कच्चे मज़ार पर एक आलीशान इमारत बनवा दी, खूबसूरत
गुम्बद मजार शरीफ पर बनाया जिस का कलस सुनहरी है मज़ार मुबारक पर चांदी का छत्र है मज़ार शरीफ़ के चारो तरफ सुनहरी चौखटों में शीशे जड़े हैं।

इतने रोचक सफर के साथ बहुत सी जानकारी लेकर लौटे,
छः दिनों का यह ट्रिप आदर्शिनी में नया उत्साह पैदा कर गया। अपने शहर लौटी तो देखा घर में दो ख़त आये हैं। एक ख़त माँ का है, लेकिन दूसरे ख़त की लिखावट पहचानी हुई सी लग रही है, पर याद नहीं आ रहा, उसने पहले माँ का ख़त पढ़ा आपने जीवन की सांझ का हवाला देती माँ अब भी चाहती है कि उसकी बेटी विवाह कर ले, आदर्शिनी ने मुँह बिचकाया मानों कड़वा नीम का पत्ता दांतों के बीच आ गया हो, इतने वर्षों से उस नीम के पत्तों को बिना दांतों के बीच लाये जुगाली ही तो करती रही है वह।

दूसरा ख़त खोला तो सबसे पहले ख़त के नीचे लिखा नाम पढ़ा – ‘‘रघुवीर।‘‘ वर्षों बाद उसके नाम को मन ने पढ़ा तो लगा शक्कर मुँह में घुल गई हो, फटाफट पूरा ख़त पढ़ डाला, आगामी बारह तारीख को वह आदर्शिनी से मिलने आ रहा है।

ढेर से पुराने पल दिमाग़ में तैर गये, उसकी सोच ने कभी भी स्थिरता को अपनाया ही नहीं इसलिए वह हर क्षेत्र में निर्णय लेने में कमजोर साबित हुई है। उत्साह के सारे द्वार खोल आदर्शिनी हर ख़ुशी को अपने अन्दर प्रवेश करने की इजाजत दे दी। रघुवीर के आने की तैयारी शुरू कर दी।

निश्चित दिन रघुवीर आया, हल्के बालों में सफेदी का आगमन स्पष्ट नजर आने लगा है, आँखों पर एनक लगा रखी है, शरीर थोड़ा फैल गया है, अघेड़ उम्र को जीवन्त करता रघुवीर सामने खड़ा है। आदर्शिनी के सारे सपने तटबन्ध तोड़ दौड़ लगाने लगे उन्हें रोकने के प्रयास में मुँह से एक शब्द भी नहीं निकल रहा है।

‘आदर्शिनी,’… रघुवीर ने पुकारा।

आदर्शिनी की ओर से कोई प्रत्युत्तर नहीं।

‘आदर्शिनी,‘… पुनः आवाज दी।

‘ हाँ,‘…अचकचा गई, मानों सपने से जगा दिया हो।

‘‘तुम में अब भी ठहराव है या मन आज भी भटक रहा है।‘‘

‘मतलब ?‘

‘‘मैं तो इन्तजार कर रहा हूँ।‘

‘किसका ?‘

‘तुम्हारा।‘

‘‘क्यों?‘‘

‘‘प्यार जो किया है मैंने।‘‘

’’बानी, कहां हैं, ?’’

’’वह काभी थी ही नहीं।’’

‘‘बताया क्यों नहीं ?‘‘

‘‘तुमने मौका नहीं दिया।‘‘

‘‘अपनी बात तो कहनी थी।‘‘

‘‘कोई बात नहीं आज कह रहा हूँ।‘‘

‘‘इतना समय बर्बाद चला गया, विरह ने परेशान किया सो अलग।‘‘

‘‘अब तो ऐसा मत करो,‘‘… रघुवीर ने बांहे फैला दीं।

आदर्शिनी उस अथाह सागर में समा गई जहाँ प्यार का सागर तड़फते दिलों को सुकून और समर्थन दे रहा है। आज वह निर्णय लेने में देर नहीं करना चाहती।

समय हर उस जख्म की दवा है जो गहरे लगी होती है, मंथन स्वयं को करना होता है, जीवन में जहां से भी शुरुआत का मौका मिले वहीं से राह पकड़ लेनी चाहिए।

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जीवन फिर नया रचेगा….

* अंजना छलोत्रे’सवि’

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