ऐसा नहीं,हमें भी,लेकिन?
ऐसा नहीं, हमें भी, लेकिन?
ऐसा नहीं के हम उदास नहीं होते,
गमो के आसपास नहीं होते,
उलझते नहीं उलझनो में,
ज़ख्मों के साथ नहीं होते,
हमें भी चाहत है कि कोई हमारी
उदासियों को चुराए,
हमारे ज़ख्मों के टापू को डुबाए,
लेकिन कौन, कब कुछ बिना मक़सद करता है,
दिल हमारा ना जाने कबसे तड़पता है l
ऐसा नहीं के हम नाराज़ नहीं होते,
फीके हमारे अंदाज़ नहीं होते,
सबकी सब बातें हमें लुभाती हों,
लफ्ज़ औरों के दखलअन्दाज़ नहीं होते l
हमें भी चाहत है के कोई हमारी
नाराज़गी को चुराए,
हमारे अंदाज़ों को महकाए
लेकिन कौन कब हमें दुलार से मनाता है,
इंतज़ार हमारा हमेशा ज़ाया ही जाता है l
ऐसा नहीं के हम रोते नहीं,
ख्वाबों को नमकीन समंदर में डुबोते नहीं,
अश्को के सावन में भीगते नहीं,
तकलीफों के दौर से गुज़रते नहीं l
हमें भी चाहत है के कोई हमारे
आंसुओ को चुराए,
हमारे नैनो को सहलाए
लेकिन कौन कब हमारे आंसू पोछता है,
अपने हाथों को ही दिल हमारा टटोलता है l
ऐसा नहीं के हम खुद में मुकम्मल हैं,
ऐसा नहीं के हमेशा आते अव्वल हैं,
ना उम्मीदी, मायूसी से कोसो दूर हैं,
मंज़िलो की कचहरी के वकील हैं l
हमें भी चाहत है के कोई हमारा
मुहाफिज़, निगेहबान हो,
हमारी हसरतों का कहक्शान हो,
हमारी राहों का मीनारे नूर हो l
लेकिन कौन कब किसे बेवजह सहारा देता है,
दिल हमारा अपनी धड़कनो का किनारा लेता है l
ऐसा नहीं है, हमें भी चाहत है, लेकिन
बस इस लेकिन पर आकर सब अरमां टूट जाते हैं
दुनिया के शिकंजे सब छूट जाते हैं,
फिर हम खुद से रूठ जाते हैं
और फिर मसरूफ हो जाते हैं खुद को मनाने में क्यूँकि –
ऐसा नहीं, हमें भी चाहत है, लेकिन…
सोनल निर्मल नमिता