एक सिपाही
क्या जीवन है बॉर्डर पे तैनात एक जवान का,
न मजहब का पता है उसके न चर्चा है ईमान का,
एक सी भाषा वतन की बोलते हैं वहां सारे,
घर बार होते हुए भी सन्यासी का जीवन जीते हैं बेचारे,
क्या उनका कोई सहज सपना नहीं होता,
क्या आपकी तरह उनका कोई अपना नहीं होता,
सीख लो आप सब उनसे ही भाईचारा,
कैसे देश की खातिर लुटाते हैं जीवन सारा,
किसी का पहनावा झलकाता नहीं उनका मजहब और ईमान,
न कोई वहाँ हिन्दू होता है न कोई होता है मुसलमान,
काश की ऐसा जहाँ बन जाये जिसमे मजहब कोई न आये,
कितना भी कोई जोर लगाए मजहब को लड़ा न पाए,RASHMI SHUKLA