*एक शादी समारोह*
दो दिन पहले अचानक फ़ोन की घंटी बजी, उधर से आवाज आयी, हैलो, मैं सुरेश बोल रहा हूँ।
इतने दिनों पश्चात, कुछ पल की स्तब्धता के बाद, परिचित आवाज़ की पहचान होते ही,
मैं खुश हो गया।
सुरेश भैया मेरे गाँव बलरामपुर से थे, वो अब राँची में रहने लगे हैं।
उन्होंने फ़ोन पर कहा, कल मेरी बेटी की कोलकाता में शादी है तुम्हें जरूर आना है, मैं पता भेज रहा हूँ।
फ़ोन रखते ही , अचानक कुसुम दीदी का चेहरा सामने आ गया, जो उनकी बड़ी बहन और मेरी मझली दीदी की पक्की सहेली भी हैं ।
कुसुम दीदी से कोई 23 वर्ष पहले मिला था।
वो मेरी छोटी बहन की शादी में आई थीं।
उनको याद करते ही, बचपन एक बार फिर अनायास ही चलचित्र की तरह चलने लगा।
मुझसे बहुत स्नेह रखती थी,
पर इसकी एक बहुत छोटी सी वजह शायद ये भी रही होगी कि,
😊😊😊😊
बचपन में,
इनके और दीदी के बीच कॉपी- किताबों, पत्रिकाओं व उपन्यासों और सूचनाओं का आदान प्रदान मेरे ही हाथों और मुँह से सम्पन्न हुआ करता था।
मैं बखूबी और मुस्तैदी से,
स्कूल जाते हुए या खेल के मैदान की ओर भागते हुए, इस काम को अंजाम दिया करता था।
एक आध बार , खेल में खलल पड़ने की वजह से बाल सुलभ मन में कभी ना कहने की इच्छा भी हुई हो,
तो मझली दीदी का स्मरण होते ही, ये झटपट गायब भी हो जाती।
उनका कोपभाजन बनने का दुस्साहस, मेरे लिए अकल्पनीय था।
इसके अलावा , इन दोनों का जब भी बलरामपुर के राधा टॉकीज़ में फ़िल्म देखने का प्रोग्राम होता,
तो उस वक्त की सामान्य मध्यमवर्गीय घरों की परंपरा के अनुसार, मैं और पप्पू भैया(इनके छोटे भाई) बतौर नन्हें अंगरक्षक की तरह जाते थे।
जिन्हें ये रिक्शा न मिलने पर, अपनी अपनी उँगलियाँ पकड़ाए लगभग घसीटते हुए ले जाती थीं,
फ़िल्म देखने की जल्दी भी तो रहती थी!!
हमें इनके साथ,
औरतों वाली सीट पर ही बैठना पड़ता था।
ये बात हम छोटे मर्दों को नागवार भी गुज़रती,
पर फ़िल्म देखने की ढीठ चाह,
इन अनर्गल विचारों को हौले से थपथपा कर चुप करा देती,
और बची खुची कसक और ग्लानि का निपटारा,
मध्यांतर में मिलने वाली झालमुड़ी, चना चपटा और भुनी हुई मूंगफलियाँ ,पूरा कर देतीं।
ये सिलसिला इन दोनों की शादियों तक बदस्तूर चलता रहा।
आज शादी समारोह में जाते वक्त मझली दीदी को फ़ोन मिलाया, तो उन्होंने बताया कि, कुसुम का फ़ोन आया था,
और ये भी बताया कि, नेहल , जिसकी शादी में मुझे जाना है, वो दरअसल सुरेश भैया की पुत्रवधू है,
कुछ साल पहले, बेटे के एक दुःखद हादसे में गुज़र जाने के बाद ,
उन्होंने अपनी बहू का घर फिर से बसाने का निर्णय लिया है।
ये जानकर , उनके लिए सम्मान और भी बढ़ गया,
इस तसल्ली के साथ, कि आदमियत और इंसान,
रोज न मिलते हुए भी ,
हमारे आस पास ही बसते हैं!!
बेटियाँ तो हर कोई विदा करता ही है ,
पर बहू को अपनी बेटी में तब्दील करके,
उसके घर को फिर से बसा देने का नेक जज्बा ,
किसी किसी के पास ही होता है।
समारोह स्थल पर पहुँच कर नजरें परिचितों को तलाशने लगी,
तभी मेरे बचपन का मित्र नरेश और अजित भैया,अपनी पत्नियों के साथ एक कोने में बैठे दिखे।
मैं उनके पास जाकर बैठ गया, हल्की फुल्की बातें होने लगी।
अजित भैया, मझली दीदी और कुसुम दीदी, बचपन के
सहपाठी रहे थे।
वो लगभग पाँच दशको के बाद कुसुम दीदी से मिल रहे थे।
नरेश के वहाँ आने की वजह, व्यक्तिगत तौर पर कुछ खास भी थी,
बातों बातों में पता चला, कि सुरेश भैया ने निमंत्रण देते वक़्त,
बरबस ही, उसको उसके पुराने बोलचाल वाले नाम “नरसिंह” से संबोधित किया था।
व्यक्ति अपने अतीत से इस कदर जुड़ा होता है कि ,
एक भूला बिसरा संबोधन, अन्तर्मन में घर कर जाता है!!
और एक झटके में ही अतीत और वर्तमान की दूरियां पाट कर रख देता है।
उसके इस नाम में ,
बचपन की यादें जो लिपटी पड़ी थीं।
उसे तो यहाँ आना ही था!!!
तभी हॉल के दरवाजे से कुसुम दीदी और सुरेश भैया , वर और वधू के साथ आते दिखे।
मंदिर से पूजा कर के लौटे थे।
अजित भैया , कुसुम दीदी से मिलकर, एक पल में ही, आठवीं नौंवी कक्षा में जा बैठे थे ,
रही सही कसर ,कुसुम दीदी के वहीं से ही ,दीदी को वीडियो कॉल करने पर पूरी हो गयी।
इन तीनो के चेहरों की खुशियाँ पढ़ने लायक थी।
इतने सालों के अंतराल में, वक़्त ने चेहरों को, थोड़ा बदल तो जरूर दिया था,
पर उम्र भी, इनके उत्साह औऱ गर्मजोशी को कहाँ कम कर पाती,
वह पूरी तरह विफल ही रही!!
इनके बचपन, परस्पर एक दूसरे से बातें कर रहे थे,
और बीते समय की अर्जित परिपक्वता,
मूक और विवश खड़ी थी!!!
भाभी, अजित भैया को आश्चर्यचकित और खुश होकर निहार रही थीं।
एक आध बार व्यंग से शायद आँखे भी तरेरी हो,
फिर खुद ही मुस्कुराकर , कुछ पलों के लिए इनको अपने निश्छल हाल पर ही छोड़ दिया था।
हम बड़े, सिर्फ दिखते हैं
होते नहीं हैं !!
कुसुम दीदी की, मुझ पर नज़र पड़ते ही, उन्होंने बड़े प्यार और स्नेहिल आँखो से पूछा,
और पोस्टमैन, कैसे हो?
यह सुनते ही, कुछ पलों के लिए, बचपन के,
वही अनमिट पल फिर आ ठिठके,
साथ ही,
ये बोझिल सच भी, कि अतीत में दोबारा जा के बस जाने वाली, कोई ट्रेन नहीं होती।
गुज़रा हुआ समय, सिर्फ एक दूसरे के अहसासों में ,
टुकड़ों टुकड़ों में बिखरा हुआ है ,
तो बसा भी पड़ा है!!
अब विदा लेने का वक़्त आ चुका था।
दिवास्वप्न अब टूटने को आतुर था,
भारी कदमों से एक बार फिर भावनाओं को
वर्तमान में लौट आना था।
कुसुम दीदी से विदा लेते वक्त, पाँव छूने जब झुका था,
उन्होंने यकीनन,यही आशिर्वाद दिया होगा,
पोस्टमैन, सुखी रहो और अपना ध्यान रखना!!
ये मेरे लिए किसी दुआ से कम ना था!!
मेरे हाथों में किताबें तो अब भी
रहतीं हैं,
पर इन्हें लेकर, अब भाग कर पहुँचाने की चाहत , सिर्फ खयालों की धरोहर हैं।
ये भी कुछ कम तो नहीं!!!😊😊😊