एक वो ज़माना था…
एक वो ज़माना था…
औरतें समर्पण व त्याग करती थीं,
परस्पर विश्वास करती थीं,
एक ये ज़माना है…
औरतें परित्याग करती हैं,
निज स्वार्थ का नहीं…
खूबसूरत रिश्तों की भी!
पहले की औरतें
खुद को झोंककर भी
रिश्ते सॅंभालती थीं,
घर की जरूरतें समझती थीं,
आज की ज़्यादातर औरतें
खुद को सॅंवारने के लिए…
रिश्तों की भी बलि चढ़ाने में
विश्वास रखती हैं!
गर वो अपनी ज़गह सही है
तो इस युग में ही विकृति दिखती है!
…. अजित कर्ण ✍️