एक मजदूर की पीड़ा
एक मजदूर की पीड़ा
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लाठी भांजे
सोना तपा
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खरा हो निकला
चमका जितना
छीले मांजे ।
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ईधन आग
जलाने के हम
फिर से झोंके
गए भाड़ में ।
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जान सौपकर
किए काम को
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ताकत हिम्मत
रही हाड़ में ।
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हस्ती मिटकर
बनती फिर है
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राख उडाकर
हम आगी को
भीतर “जोग” रहे
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मेरी शब्द साधना मोती
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तह दर तह
भीतर से लाती ।
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भार उमर से
अधिक घरे है ।
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लफ लफ कमरी
कमर करे है ।
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ततर तितिर
पांवों को घरता
और भला बोलो क्या करता ।
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हफ्ते भर का खून पसीना
तीन दिनो का दबता दावे
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मलिक ने कर दिया चुकारा ।
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घर के सभी जरुरी खर्चे
चलनी के छेदों के जैसे
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खोल रखा अपना मुंह सारा ।
हींसा एक हरैया धरती
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कोठा एक चार फुट परछी
घर भर गुजर करे ।
पेट उपास करे ।
वे लगे
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शोषण दमन में
पेट भर परिवार को
मिलती नही है रोटियां ।
ज्ञान के औजार हमको
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काटने के बाद लाये ।
बेचने को बोटियां
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एक हौसला बडी दवा है ।
ऐसी ताकत नही किसी मे ।
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आसमान को छुआ जभी से
दुनिया लगती छोटी
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धुटने टेक नही सकता हूँ
जिन्दा जब तक बोटी ।
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सस्ता खून बेचकर लौटा
ले पाया हूँ सूखी रोटी ।
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राज कुंवर की ओछी हरकत
सहती जनता भोली
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बेटी का सदमा ले बैठा
पागल हुआ रमोली ।
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देह गठीली सुन्दर आंखे
दोष यही अघनी का ।
खाना खर्चा पाकर चुप है
भाई भी मंगनी का ।
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®सर्वाधिकार सुरक्षित
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®विनय पान्डेय
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