एक बात को कहने में क्यूं, इतना भेद हमारा….
तुम जिसको बंधन कहते,
मैं कहता उसे सहारा
मैं उसको जीवन कहता हूँ,
तुम कहते हो कारा
एक बात को कहने में क्यूं,
इतना भेद हमारा।
जिसकी कोमल बाहों ने,
भर-भर कर प्यार लुटाया
जिसके मादक नयनों ने,
मधुमेघ सतत बरसाया
जिसका रोम-रोम स्वागत में,
उठ-उठ पुलक बनाता
जिसका अणु-अणु
मादकता से
सिहर-सिहर रह जाता….
जिसकी कल ध्वनी से निकला…
हर पद कविता बन जाता
जिसका हर निश्वास….. उतर-चढ़ कर सरगम कहलाता….
जिसके हर अवयव ने, मुझको…..
संगीत सुनाया
जिसकी हर धड़कन ने,
मुझे भूला पथ दिखलाया
जिसने मेरी धूल पोंछ कर… मेरा रूप संवारा…
मैं उसको जीवन कहता हूँ, तुम कहते हो कारा।
एक बात को कहने में क्यूं,
इतना भेद हमारा।
जिसकी छाया पाकर,
पथ के शूल-फूल बन जाते
जिसके चरणों से पिस,
पर्वत मूल-धूल बन जाते
जिसमे यौवन है….
यौवन देने की भी क्षमता है
जिसमे सुरभी….
सुखद, मदभरिता…
शान्ति, सौम्य समता है
जिसको पाकर…
यह अन्तर,
सब मूल भूल जाता है
जिसमे बस कर मन,
जीवन के सभी मूल पाता है
जिसने हर मरने वाले को,
है जीना सिखलाया
जीने वाले को भी…
जीने का ढंग सिखाया
उसे कुसुमशर मैं कहता हूँ,
तुम कहते अग्नि-धारा।
मैं उसको जीवन कहता हूँ, तुम कहते हो कारा।
एक बात को कहने में क्यूं,
इतना भेद हमारा।
जिसकी स्मृति भी, मिलन-मधुरता का
सुख दे जाती है
जिसकी छाया भी,
आकृति से
शोभन बन जाती है
जो….
शिव-सुंदर-सत्य, स्वयं
जो काव्यमयी वरुणा है
जिसका है आलोक गगन में,
जो मधुमय अरुणा है।
जिसकी पीड़ा मोद भरी, करुन जिसकी थाती है
विरह व्यथा जिसकी नयनों
के दीप जला जाती है।
जो मेरी दुनिया में आकर, सौरभ भर जाती है।
जिसकी विष प्याली भी, मुझको जीवन दे जाती है।
तुम उसको मृत्यु कहते हो, जिसने मुझे उबारा….
मैं उसको जीवन कहता हूँ, तुम कहते हो कारा।
एक बात को कहने में क्यूं,
इतना भेद हमारा।
मैंने बाहर-भीतर देखा,
तुमने केवल बाहर
मैंने नर पाया जिसको,
तुम कहते हो नाहर
मैंने अनुभव से पाया,
अपना आप गला कर
तुमने फतवा दे डाला,
कल्पना पंख सरका कर।
मैं कोरे कागज़ सा,
साफ़ हिया ले
जग में आया
जो जग ने लिख डाला,
मैंने उसको सरबस पाया।
तुम ज्ञानी, दर्शन-मानी,
सिद्धांत परखने वाले।
नयन तुम्हारे धनी,
श्वेत पत्रों को करते काले।
इसी लिए तुम विष कहते… मैं कहता अमृत धारा
मैं उसको जीवन कहता हूँ, तुम कहते हो कारा।
एक बात को कहने में क्यूं,
इतना भेद हमारा।