एक परोपकारी साहूकार: ‘ संत तुकाराम ’
वे भाग्यशाली लोग होते हैं, जिनके पास धन-दौलत होती है। लेकिन ऐसा धन किसी काम का नहीं होता, जो परोपकारी कार्यो और जरूरतमंदों में न लगे। ऐसा धनी बनने से क्या फायदा कि वह धनकुबेर तो पुकारे जाएं, लेकिन उनका धन किसी निर्धन का तन न ढक सके। किसी भूखे की भूख न मिटा सके। वैध-अवैध तरीके से अर्जित की गई सम्पत्ति यदि किसी सुकार्य में लगती है, तभी उसकी सार्थकता है।
दान, करुणा, दया, सेवा की भावना में विश्व में अग्रणीय रहे भारत वर्ष में आज नेताओं, नौकरशाहों, व्यापारियों, हवाला कारोबारियों, भूमि माफियाओं, चैनलबाबाओं से लेकर संत-महन्तों के पास अकूत सम्पदा है, लेकिन इस सम्पदा का उपयोग अकाल पीडि़तों, बाढ़-पीडि़तों, वैभव से वंचित लोगों के बीच शायद ही कोई करता है। हर कोई असहाय भोली जनता की जेब कतरता है और अपनी तिजोरियाँ भरता है। देशभक्त समाजसेवी जिस कालेधन को वापस लाने की बात कर रहे हैं, यदि यह काला धन वापस आकर जनविकास और उन्नति में लग जाये तो भारत में न कोई व्यक्ति भूखा रहेगा और न आदिवासियों को नक्सलवादी बनना पड़ेगा। बेईमान सरकारों में सही संकल्प शक्ति के अभाव के कारण ही आज सम्पूर्ण भारत में आर्थिक असमानता सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रही है।
लोककल्याण की थोथी बातें कर जनता को भरमाने वाला आज का साधु-समाज दसियों एकड़ में अपने वातानुकूलित, सभी सुविधाओं से युक्त, वैभवशाली आश्रम बनाकर रह रहा है। लगता है जैसे इन्हें साईं बाबा, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा कबीर, गुरुनानक, महात्मा फुले, संत रविदास, गुरु गोरखनाथ, गौतमबुद्ध के संघर्ष और आत्मबलिदान, सत्यपरक वैचारिक अवदान से कोई लेना-देना नहीं।
साधु वही होता है जो स्वयं को मोम की तरह गलाकर समाज को प्रकाशवान बनाता है। स्वयं को बनाने वाले से खुद को लुटाने वाला श्रेष्ठ होता है। यही श्रेष्ठता संत तुकाराम के जीवन को आलोकित करती है।
संत तुकाराम एक साहूकार परिवार में जनमे। जवान होकर तुकाराम ने अपने पिता के कारोबार में हाथ बँटाया। साथ ही अपने को ईश्वर-भक्ति और समाज सेवा में लगाया। तुकाराम अच्छे चिंतक, कुशल कवि और उत्तम गायक थे। पूना के पास देहू गाँव में उनकी साहूकारी चलती थी।
महाराष्ट्र में 1628 से अकाल ने तांडव किया। अकाल का चौथा वर्ष। हर ओर पहले से कहीं अधिक हाहाकार। चारों तरफ सिर्फ सूखे की मार। लोग गाँव से बाहर जाकर कंद-मूल खाते। जिन्हें कुछ न मिलता वे भूखे सो जाते। इन कारुणिक दृश्यों को देखकर संत तुकाराम का हृदय करुणा और दया से इतना आद्र हुआ कि वे दूसरे स्थानों से खरीदकर अनाज ले आये और उसे जनता को बाँट दिया। जब वे अनाज बाँट चुके थे तभी एक स्त्री अनाज लेने आयी। अनाज न मिलता देख स्त्री के प्राण-पखेरू वहीं उड़ गये।
उसी समय साहूकार संत तुकाराम के मन से एक अभंग फूट पड़ा-‘‘मुझे शर्म आ रही है। यह स्त्री अन्न की आशा में आयी थी पर मेरे पास अनाज न देख वह मर गयी।’’
यह अभंग मराठी साहित्य की अमूल्य निधि है। सन् 1649 में समाज की सेवा करने वाले संत तुकाराम इस संसार को सदा-सदा के लिये विदा कह गये। आज भी फाल्गुल मास में उनकी निधन-तिथि पर एक बड़ा मेला लगता है। लोग दूर-दूर से इस संत को श्रद्धांजलि अर्पित करने आते हैं।
—————————————————————————-
सम्पर्क- 15/109, ईसानगर, अलीगढ़ मोबा.-