एक पंथ दो काज
एक पंथ दो काज
अक्सर इतवार की शाम शर्मा जी अपने बीबी-बच्चों के साथ लाँग ड्राइव पर शहर से दूर गाँव की ओर निकल पड़ते थे। इस बार भी अभी वे शहर के आउटर में ही पहुँचे थे, कि उन्होंने सड़क किनारे गाड़ी रोक दी। उनकी दस वर्षीया बेटी ने पूछा, “क्या हुआ पापा ? आपने गाड़ी क्यों रोक दी ?”
शर्माजी ने कहा, “बस दो मिनट रूको। मैं अभी आया।”
शर्माजी गाड़ी से उतरकर एक ठेले पर गए, जहाँ एक बुजुर्ग दंपत्ति समोसे बना रहे थे, वहाँ से खरीदने लगे।
गाड़ी में बैठे उनके सात वर्षीय बेटे ने कहा, “मम्मा, देखो पापा कैसे उन बूढ़े लोगों से समोसे खरीद रहे हैं। छी… छी… मैं तो नहीं खाऊँगा। आप लोगों को खाना हो, तो खा लेना।”
मम्मी ने कहा, “ठीक कह रहे हो बेटा। मत खाना तुम।”
शर्माजी थैले में समोसे लटकाए आए और फिर से उनकी गाड़ी चल पड़ी आगे। कुछ दूर आगे जाकर उन्होंने गाड़ी फिर से रोक दी। बोले, “आप लोग पाँच मिनट रुको। मैं अभी आया।”
वे समोसे की थैली लिए निकले और सड़क किनारे स्थित अनाथालय के मैदान में खेल रहे रहे बच्चों को समोसे बाँटने लगे। थोड़ी देर बाद वे आकर फिर से गाड़ी ड्राइव करने लगे।
बेटी से रहा नहीं गया। पूछ बैठी, “पापा आपने समोसे क्यों खरीदे थे ?”
पापा ने समझाया, “बेटा, हम सक्षम लोग हैं। हमारे लिए सौ-दो सौ रुपए कुछ विशेष मायने नहीं रखते। जिनसे मैंने समोसे खरीदे, उनके लिए ये बहुत मायने रखते हैं। उनकी उम्र देखी थी आप लोगों ने ? अस्सी साल से क्या कम रही होगी ? इस उम्र में बहुत जरूरतमंद व्यक्ति ही काम करते हैं। वे स्वाभिमानी हैं, जो खुद काम कर गुजारा करते हैं। उनसे समोसे खरीद कर और इन अनाथ बच्चों को खिलाकर मैंने एक साथ दो-दो नेककार्य कर लिए।”
“वावो, यू आर ग्रेट पापा। लव यू।” बेटी ने कहा।
-डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़