#एक धरती एक सूरज
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(लघुकथा)
★ #एक धरती एक सूरज ★
“बस्ती के इस ओर हमारा घर था और दूसरे छोर पर गिरीश चाचाजी का। एक बार उनकी नियुक्ति वहाँ हुई जहाँ पिताजी प्रधानाध्यापक थे। तब से दोनों परिवारों में मेलजोल बढ़ने लगा। हिंदी भाषा के अध्यापक होते हुए भी सभी विषयों पर उनका समान अधिकार था।
“संध्या समय की सैर करते हुए कभी-कभी दो गलियाँ घूमकर हमारी गली में आ निकलते। पिताजी पूछते, “गिरीश, कैसे हो? बहू कैसी है? बच्चे स्वस्थ हैं न?”
“उनका एक ही उत्तर होता, “आपके आशीर्वाद से सब मंगल है।”
“उसके बाद वे दोनों जगजगती की बातें करते। एक-एक प्याली चाय पीते और चाचाजी चल देते। पिताजी माँ से कहते, “चाय तनिक रुककर बनाया करो। चाय पीते ही चल देता है गिरीश।”
“चाचाजी के चारों बेटे अपने काम-धंधे से लग गए। फिर उनके विवाह हो गए। अब चाचाजी का सैर पर निकलना अथवा हमारी गली की ओर आना भूलेबिसरे सपने सरीखा हो गया।
“इधर भी विवाह के बाद बड़े भैया बेंगलुरु और छोटे भैया गुरुग्राम के स्थायी निवासी हो गए। माताजी अथवा पिताजी ने उन दोनों का घर न देखा न कभी देखने की इच्छा ही की।
“पिछले रविवार, बहुत समय के बाद चाचाजी आए। पिताजी ने माँ से बोल दिया, “चाय मत बनाना अभी, यह पीते ही चल देगा।”
“चाचाजी हँसे, “आज मैं दो प्याली चाय पिऊँगा। और आज मैं आपसे नहीं, बेटी से मिलने आया हूँ।”
“मैं प्रसन्नमुख उनके समीप जाकर बैठी तो वे बोले, “बेटी, बड़ी दुविधा में हूँ। मेरी सहायता करो।”
“मैं? आपकी सहायता करूंगी? क्या कहते हैं चाचाजी?”
“हाँ बेटी, मेरी समस्या का समाधान तुम्हीं कर सकती हो। दूजा कोई नहीं”, चाय की प्याली हाथ में लेकर उन्होंने बात आरंभ की, “सबसे बड़ा बेटा मुंबईकर हो गया है। वो कई बार बुला चुका है परंतु, मैं उस पत्थरों के जंगल में भटकना नहीं चाहता।
“दूसरा और तीसरा दोनों अमेरिका में हैं। दो बरस पहले माँ के निधन पर आए थे दोनों। एक सात बरस बाद आया था और दूसरा पाँच बरस के बाद। उनके लौट जाने पर पता चला कि उन दोनों में सहमति नहीं बन पाई थी कि इस बार तुम चले जाओ, पिताजी के निधन पर मैं चला जाऊँगा। अतः विवशतावश दोनों को आना पड़ा।
“सबसे छोटा है तो दिल्ली में, लेकिन लगता है वो सबसे दूर है। पतिपत्नी दोनों नौकरी करते हैं। बच्चे किसी शिशुसदन में हैं। बेटाबहू दोनों कहते हैं कि आप हमारे पास आ जाइए। तब बच्चे भी घर में रहेंगे।
“मैं तुमसे यह जानने आया हूँ कि यदि मेरी शेष आयु पाँच वर्ष से अधिक है तो मैं मुंबई चला जाऊँ? और यदि मेरे पास पाँच वर्ष से कम शेष बचे हैं तो दिल्ली चला जाऊँ? और, यदि एक-डेढ़ वर्ष की बात है तो मैं यहीं रहूँ?”
एक मैं ही क्या, पिताजीमाताजी भी दोनों विस्मित थे कि यह कैसा प्रश्न है? और इसका उत्तर क्या हो? मैंने ही मौन तोड़ा, “चाचाजी आपका प्रश्न ही समझ नहीं आया तो मैं उत्तर क्या दूं।”
“सीधी बात कहता हूँ”, चाय की रिक्त प्याली नीचे रखते हुए वे बोले, “तुम्हारे माताजी पिताजी अथवा तुममें से कौन पहले गोलोक जाएगा?”
“चाचाजी, जिसको रामजी पहले बुलाएंगे वही चल देगा”, मैं हंसी।
“ठीक, सुनने में आया है कि तुम इसलिए विवाह नहीं कर रही हो कि तुम्हारे बाद मातापिता का क्या होगा? तनिक विचार करो कि यदि तुम्हें पहले बुलावा आ गया तब इनका क्या होगा? और यह भी विचार करना कि यदि प्रभुकृपा से तुम्हें ऐसा जीवनसाथी मिल गया जो सच में तुम्हारे मातापिता को अपना ही माने तब?”
“ऐसे लोग सपनों के संसार में बसते हैं चाचाजी!”
“इसी संसार में सपनों को सच होते भी देखासुना गया है, बेटी।”
मैंने कहा, “मैं आपके लिए दूसरी प्याली चाय की लाती हूँ चाचाजी।”
“यह पिछले रविवार की बात है। आज भी रविवार है और मैं विवाहबंधन में बंधकर आपके घर चली आई हूँ।”
सामने से कोई हूँ, हाँ नहीं सुनने पर उस मोहिनी ने आँखों में ढेरों प्रश्न लिए मुखड़ा ऊपर उठाया। नयन नयनों से मिले तब उसका संगी यों बोला, “कहती रहो। सुन रहा हूँ मैं।”
“अब और क्या कहूँ?”
“तब सुनो, तुम्हारे चाचाजी मेरे गुरु हैं। केवल विद्यार्थीजीवन के नहीं अपितु यों भी कभी कोई दुविधा राह रोक ले तो मैं उन्हीं की शरण में जाया करता हूँ। मेरे पिता बड़े व्यापारी थे। बहुत धन अर्जित किया उन्होंने। एक दिन ऐसे रोगग्रस्त हुए कि समस्त संचित धनसंपदा साथ लेकर परमधाम को चले गए। अब मेरे हाथ में उनके नाम का गौरव था और कुछ ऋण था। भूमि व भवन क्रयविक्रय के धंधे में मैं ग्राहकों की अधिक सुनता हूँ कहता न्यून हूँ। मेरे ग्राहक मेरे अन्नदाता हैं। पाकशाला में अन्न को भोजन बनाकर तुम मुझे स्वस्थ जीवन का सुख प्रदान करोगी इसलिए तुम मेरी पालक कहलाओगी।”
“बस, इसी कार्य के लिए मुझे लेकर आए हैं आप?”
“नहीं, एक शिक्षक की बेटी हो तुम। चाचाजी ने बताया था कि तुम्हारे पिता तुम पर गर्व किया करते हैं। और, मेरी भावी संतानों की माता भी तो तुम्हीं को होना है। उन्हें ईश्वरप्रदत्त जीवन के लिए ईश्वर को धन्यवाद कहना और मानवसमाज के सुयोग्य नागरिक बनाने का दायित्व भी तो तुम्हारा ही रहेगा न।”
“इतनी सयानी बातें करते हैं आप, यह तो बताइए कि हमारी बस्ती में एक ही गिरीश चाचाजी क्यों हैं?”
“एक धरती एक बस्ती के लिए एक ही सूरज हुआ करता है, सुमि!”
“बाहर लगता है वर्षा आरंभ हो गई है। चाचाजी बता रहे थे कि आप चाय बहुत चाव से पीते हैं। मैं आपके लिए चाय बनाकर लाती हूँ।”
“बैठो, यह सावन का आरंभ है। केवल चाय से क्या होगा? कल संध्या समय जब बूंदाबांदी हो तब पकौड़ों के साथ चाय बनाना। माँबाबूजी और चाचाजी भी कल यहीं रहेंगे। आज तो केवल प्रेमरस पीने का मन है।”
सुमि पति का मुख निहारती उसकी गोद में लुढ़क गई। अब उसके नयन मुंदे जा रहे थे। अंतर्मन से बोल फूट रहे थे, “मुझ प्यासी धरती के मेरे अपने सूरज तुम्हीं तो हो!”, परंतु, स्वर की राह साजन के अधरों ने अवरुद्ध कर ली थी।
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२