एक दीप
गीत
जब मन्दिर में दीप कोई, आशा का भरता है
तेल, बाती, घी नहीं जी, भावों से डरता है।।
थाल लेकर चले आस्था, वर्जित तन अभिमान
मैं बन जाऊं दीप शिखा, ज्योति ज्योति का दान
एक यही तो दीपक अपना, रोज मरता है
तेल बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।
शुक्ल कृष्ण पक्ष मेरे द्वारे अतिथि बन ठहरे
उजले उजले वसन थे उनके, घाव बहुत गहरे
कौन समझाए इस दीप को, रोज बिखरता है
तेल, बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।
अर्चना के जंगल में, शंख ध्वनि कैसी
मोर पंख ले नज़र उतारें, ग्रह दशा कैसी
धर्म, अर्थ, काम मोक्ष का, बाजार सँवरता है
तेल, बाती घी नहीं जी, भावों से डरता है।।
सूर्यकान्त