एक डाइनिंग टेबल की फ़रियाद
एक डाइनिंग टेबल की फ़रियाद
हजूर, मैं ईश्वर की शपथ लेकर निवेदन करती हूँ कि जो भी कहूँगी सच कहुंगी, सब सच कहुंगी और सच के अतिरिक्त कुछ नहीं कहुंगी।
मेरा नाम डाइनिंग टेबल है। मेरा यह नाम किसने और क्यों रखा, मुझे नही मालूम। न ही मेरे पास मेरा यह नाम होने का कोई सबूत है। आपको मेरी बात पर विश्वास करना होगा। मैने देखा है कि परिवार के सदस्य जब थके हारे शाम को घर लौटते तो सब एक साथ बैठकर रात का खाना खाते थे। परिवार के पुरुष सदस्य चारों ओर रखी कुर्सियों बैठते। खाना मेरी संगमरमर या सनमायका से ढकी छाती पर प्लेटों मे रखा जाता। मेरे साथ १२ कुर्सियों का जमावड़ा था।
मैने परिवार वालों से सुना है कि मेरे आने से पहले, खाना रसोई घर मे ही खाया जाता था। सब सदस्य पाल्थी मारकर बैठ जाते, सामने जमीन पर या एक लकडी के छोटे पटरे पर थाली मे खाना रखा जाता और सब तबियत से ताज़ा ताज़ा खाना खाते। अंग्रेज़ों के आने के बाद पढ़े लिखे घरों मे डाइनिंग टेबल आ गईं जो ड्राइंग रूम मे रखी रहती। घर के सदस्य और महिमानों को वहीं खाना परोसा जाता। थाली की जगह स्टील या चीनी मिट्टी की प्लेटों ने ले ली। कहते हैं जो साथ बैठकर खाते हैं सदा साथ रहते हैं।
मैं इस बात की गवाह हूँ। मुझे याद है दादाजी ( भगवान उनकी आत्मा को शांति दे), दादीजी, बडे भैय्या, मँझले भैय्या, छोटे भैय्या, बडे भैय्या का लड़का चिंतू, लड़की रीना, मँझले भैय्या का लड़का मानू, छोटे भैय्या का लड़का मानव सब रात का खाना एक साथ बैठकर खाते थे। घर की महिला सदस्य जो अक्सर खाना बनाती भी थीं, सबको गरम गरम खाना लाकर देतीं। सब आराम से चटकारे लेकर खाना खाते। खाने के साथ साथ परिवारिक बिषयों पर चर्चा होती, विवाद सुलझाये जाते। कभी कभी एक दूसरे की टाँग भी खींचते पर मर्यादा के अंदर। बच्चों के अच्छे काम की तारीफ़ होती, कभी हल्की सी डाँट भी पडती या प्यार से मज़ाक़ उड़ाया जाता। भोजन के बाद सोफ़े पर जमकर बातें होतीं, अगले दिन का काम तय होता और अपने अपने सोने के कमरों मे विश्राम करने चले जाते। तब तक महिलायें भी भोजन कर चुकी होतीं।
दादाजी की म्रित्यु के बाद बडे भैय्या ने सबकी सलाह से फ़ैक्टरी का कार्य भार संभाला। दोनों छोटे भाई खूब हाथ बँटाते। सबकी मेहनत से व्यापार उन्नति कर रहा था। जब कभी विवाद होता तो बडे भैय्या का निर्णय अंतिम होता।
लेकिन आने वाली पीढी बदलाव चाह रही थी।चिंतू आगे की उच्च पढ़ाई के लिये अमरीका जाना चाहता था।। घर वालों ने समझाया कि ग्रेजुयेसन के बाद फ़ैक्टरी मे आ जाय जहाँ और हाथ चाहिये थे पर वह नही माना। बोला पढ़ाई करेगा। बात माननी पड़ी । छोटे भाई खुलकर बोल तो नही पाये पर सहमत नही थे। रीना आगे पढ़ना चाह रही थी, पढाई मे हमेशा अब्बल रहती थी। दादीजी ने कहा लड़की की जगह घर मे होती है ज्यादा पढ़कर कौन सी नौकरी करनी है या बिज़नेस संभालना है। अच्छा सा घर देखकर शादी करवा दी। बहुत रोई बेचारी पर किसी ने न सुनी। घर मे माहौल भारी सा हो गया।
दूसरी तरफ बाज़ार मे मंदी फैल गई। साथ ही कंपीटीसन भी बढ़ गया। दाम घटने लगे, नफ़ा घटने लगा। जरूरी था कि लागत कम करते। बडे भैय्या फ़ाइनैंस और प्रोडक्शन देखते थे , मँझले परचेज और छोटे सेल्स। कोई बोलता माल बनाने की लागत ज्यादा है, आदमी कम करो, दूसरा बोलता कच्चे माल की लागत ज्यादा है, कोई बोलता सेल्स सही दाम पर माल नही बेच रहा है। सब एक दूसरे को दोष देते रहे।
डाइनिंग टेबल पर टीका टिप्पणी होने लगी। दोषारोपण होने लगा। दादीजी को तो बिज़नेस की समझ थी नही , क्या बोलती। बस चुप रहो, चुप रहो लगी रहती। एक रात जो सोई तो फिर उठी ही नहीं। हमेशा के लिये चुप हो गई।
अब रात के भोजन का कोई समय नही रहा। जब जो आता खाता। फिर अपने अपने कमरों मे खाने लगे। पत्नियों ने इस बिखराव मे पूरा साथ दिया। अब मेरी जरूरत नही रही। कभी कभी कोई आकर चाय वाय पी लेता। हाँ महिमानों के सामने ड्रामा पूरा करते कि सब वैसा ही है।
परिवार का विघटन तेज़ी से हुआ। फ़ैक्टरी और घर बेचकर आपस में बाँटा और शहर से बाहर दूर दूर घर ले लिये। अपने अलग व्यापार कर लिये।
मुझे कोई साथ नही ले गया। बोले, बहुत बड़ीं हूँ। बहुत बूढ़ी हूँ बोलना चाह रहे होंगे। जाते जाते एक कबाड़ी को दे गये। अब वहीं एक कोने मे पड़े पड़े धूल से सनी हूँ। शायद कोई आकर ले जाय। शायद अब भी कोई ऐसा परिवार हो जो साथ बैठकर भोजन करता हो।
हजूर, आप ही कहिये क्या उनका घर मैने तोड़ा? मेरा कशूर क्या है? जीवन भर पूरे परिवार को बाँध कर रखा। कम से कम दफ़ना तो देते।
हजूर, मेरी प्रार्थना है कि मुझे किसी ऐसे परिवार मे शरण मिले जहाँ सब रात का भोजन मिल बैठ कर करते हों। अन्यथा मेरा अंतिम संस्कार करवा दें।
आपकी आज्ञाकारिणी,
एकाकी डाइनिंग टेबल