एक कुण्डलिया
परम्परा को तोड़ना,नव-पीढ़ी की रीत.
जो कुछ गाया जा सके,वही कहाये गीत.
वही कहाये गीत,सहज में जो आ जाये.
अनपढ़ भी सुन बन्धु,जिसे निज लय में गाये.
कह सतीश कविराय,हो स्वीकृत वसुन्धरा को.
फिर क्या ढोना मीत,व्यर्थ में परम्परा को.
*सतीश तिवारी ‘सरस’,नरसिंहपुर