एक अधूरी कविता।
एक अधूरी कविता
एक उमंग उस दिन आकर काव्य दीप जला डाला
मैंने भी कुछ शब्दों को चुन कविता एक बना डाला
देख अपनी काव्य कुशलता दिल-दिमाग उद्वेग हुआ
गर्वित मन तब लगा समझने धारा काव्य बहा डाला
हो गया गर्व में मगरूर सोचकर कवि बन गये हैं हम
बनकर स्वयं मियां मिट्ठू फूले नहीं समा रहे थे हम
सोचा सौन्दर्य और भक्ति से हमें नहीं कुछ लेना देना
जो बना बेहतर बना समझ,जब इठलाने लगे थे हम ।
तभी बुद्धि ने मन से बोला मत गुरूर इतना कर भाई
रचना में है नहीं किसी प्रेयसी की अल्हड़पन अंगराई
निराला का न छायावाद न राष्ट्रीयता चतुर्वेदी जी का
फिर दो कोडी की कविता में देखी कौन सी अच्छाई ?
भक्ति के पद नहीं थे ऐसे जो मीरा-रहीम से हो बढकर
नीति के दोहे लिखे नहीं जो ले वृंद- कबीर से टक्कर
देशभक्ति भी नहीं थी कि कलम दिनकर की थम जाए
हाला का जिक्र न ऐसा वर्मा-शर्मा-बच्चन चक्कर खाए
मन से आई एक आवाज फिर वह कलम कहां से लाऊं
चतुर्वेदी का दीपक राग,बेनीपुरी का जादू कहां से पाऊं
सूर,कबीर,मीरा,रहीम की बात बहुत अलग- अलहदा है
प्रासाद-भारतेनदु का अप्रतिम वाणी कैसे मैं अपनाऊं ?
सुन मन की बात बुद्धि ने एक सुंदर युक्ति दिखलाई
धारण करो एक निर्भीक लेखनी डर-भय दो बिसराई
गिरवी रखी कलम सदैव से महलों का गीत है गाती
लिखो उनकी जिनकी अभीतक कोई नहीं सुन पाई ।
मन ने कहा आज से कलम केवल सच उगलेगी
भूषण और कविचंद की भांति छंद वैसा गढेगी
काम मिले हर हाथ को सबका लक्ष्य बनेगा ऐसा
तब जाकर कविता मेरी जन-जन को गले लगेगी ।