ऊँचाई ( लघुकथा)
ऊँचाई (लघुकथा)
विशाल के पिता की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण पढ़ाई-लिखाई में उसे काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था।
वह समय पर स्कूल की फीस नहीं भर पाता था।काॅपी-किताब भी नहीं खरीद पाता था।आधे दामों पर बिकने वाली पुरानी किताबें ही उसका सहारा थीं।
जैसे-तैसे उसने बी.ए.तक पढ़ाई पूरी की और निकल पड़ा नौकरी की तलाश में।बहुत जल्द उसे एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी मिल गई। पर प्रखर,जो कि उसका काॅलेज के दिनों का दोस्त था, के अनुसार वह नौकरी उसकी योग्यता के अनुरूप नहीं थी।
प्रखर मुसीबत के समय सदैव विशाल के साथ खड़ा रहता था। वह विशाल को दया का पात्र नहीं समझता था।वह उसकी प्रतिभा का फैन था।
प्रखर ने अपने दोस्त विशाल को समझाते हुए कहा-दोस्त, तुम्हारे अंदर वह काबिलियत है कि तुम बहुत ऊपर जा सकते हो।बस, थोड़ा हाथ-पाँव मारने की जरूरत है।
विशाल बोला,मैं उस ऊँचाई पर नहीं जाना चाहता,जहाँ पहुँचकर नीचे लुढ़कने का सदैव खतरा बना रहता है।इतना ही नहीं, ऊँचाई पर पहुँचकर इंसान को धरती की चीज़ें बहुत छोटी नज़र आने लगती हैं।
विशाल की बात सुनकर उसके दोस्त प्रखर को लगा ,जीवन की सच्चाई तो यही है।अचानक ऐसे अनेक उदाहरण उसके दिमाग में कौंध गए,जहाँ पर उसने देखा था कि लोग ऊँचाई पर तो पहुँच गए, भौतिक सुख-साधन प्राप्त कर लिए पर अपने दोस्तों और संबंधियों से दूर हो गए।इतना ही नहीं, उन्हें तो अपने परिवार के लोग भाई-बहन यहाँ तक कि माँ-बाप भी छोटे लगने लगे।
प्रखर ने विशाल को गले लगाते हुए कहा-भाई तुम बिल्कुल ठीक कह रहे हो।इंसान को कभी भी इतनी ऊँचाई की ख्वाहिश नहीं करनी चाहिए जहाँ से उसके अपने बौने दिखाई देने लगें।
डाॅ बिपिन पाण्डेय