उलझनें
उलझनें
उलझनें ही फिर
अच्छी हैं ,
बिना किसी के
बात के
क्या कुछ सिखा
जातीं हैं ,
जाने कितने सवाल
उठते हैं,
उनके जवाब बरबस
ही दे जातीं हैं ,
कितनी ही
अनभूज पहेलियाँ
भुजाती हैं
दूसरे पल,
सुलझा भी
जाती हैं ,
यह उलझनें ही तो
सुलझने का क़ायदा
सिखा जाती हैं,
क़तरा क़तरा हो ,
बिखर जाएँ
तभी तो मौसम आएगा
और
नव जीवन का
निखार आएगा ।
कुछ भी हो हिम्मत न हारना ,
ख़्वाब ही तो हैं,
टूटेंगे भी ,
ख़्वाब देखना न छोड़ना,
होंसलों के परचम
आबाद रखना
उन्हें ज़िंदा रखना ,
होंसलें इतने बुलंद कि,
मुश्किलें भी हार जायें
होंसलों के आगे मुश्किलें
शर्मिंदा हो जायें ।
ज़िंदगी की धूप छांव में
बस बढ़ते जाना ।
डॉ करुणा भल्ला