उम्र न जाने किन गलियों से गुजरी कुछ ख़्वाब मुकम्मल हुए कुछ उन
उम्र न जाने किन गलियों से गुजरी कुछ ख़्वाब मुकम्मल हुए कुछ उन्हीं गलियों में छूटे मिले,
मैं हर अधूरी ख्वाहिश के लिए क्यों अपने मसीहा को दोषी ठहराऊँ, कभी-कभी मेरी खामोशी भी हावी हुई है उन पर,
अग़र एक ख्वाहिश नाक़ाम होने से मैं ठहर जाती तो आज हक़ीक़त का ये जहां नहीं मिलता मुझे,
मैंने सींचा है अपनी जीवनरूपी लता को कइयों के सूखने के बाद भी कि कहीं एक और न सूख जाए।