उम्मीद के सहारे
प्रतिदिन की तरह आज भी वह सूर्योदय होने से पहले उठी। दो-तीन बार की कोशिशों के बाद दीया- सलाई से दीपक को जलाया। दीपक की टिमटिमाती रोशनी से वह इधर-उधर देखने लगी। घर पर सभी सो रहे थे। आसमान पर सप्त ऋषि भी झुके हुए थे कि सूर्यदेव लालिमा की किरणें बिखेरेंगे। तदुपरांत उसने रास्ते में कुत्तों को भौंकते हुए सुना। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सूनसान गलियों से कोई टहलने को जा रहा था।
सूर्य के निकलते ही सिर पर पल्लू डाल रोज रोज की तरह काम में लग गई। बच्चों को जगा कर विद्यालय को भेजा। तत्पश्चात वह अपने काम पर निकली। वही गहरे नीले रंग की साड़ी पहने हुए और हाथों में दो चार रंगीन चूड़ियों की खनक लिए हुए। रुखे हुए पैर और ऐड़ियों में पड़ी दरारें बयांँ करती थी कि वह कभी भी अपने कार्यस्थल पर पहुंँचने में देर नहीं करती होगी। उसका गेहुँआ रंग और पाँच फीट के लगभग कद था। वह चंचल और स्फूर्तिवान महिला थी। वह मजदूर महिला थी। वह सिर पर बोझ ढ़ोती, चाहे सूर्य अपनी कला बाजियांँ दिखाएं या मेघ डराने की कोशिश करें ।
सांँझ होते ही अपने घर को वापस आती। बच्चों की किलकारीयों से मांँ की ममता जाग उठती थी। थकान यूंँ ही पल भर में कहीं दूर गायब हो जाती। अपने सलूका से एक दस का सिक्का निकालकर बच्चों को देती। आवाज लगाती मुनिया! अरे मुनिया…! जा जरा पास की दुकान से सामान तो लेकर आ। अरे!जल्दी आना अभी तेरे बाबूजी आते ही होंगे। उनके लिए कुछ खाने को बना दूंँ। चौंकते हुए, अरे!यह क्या आज तूने खाना नहीं खाया। मुनिया ने कहा,” नहीं मांँ।” क्यों नहीं? क्या आज तुझे भूख नहीं लगी थी?मुनिया थोड़ी हिचकिचाते हुए बोली,” मांँ लगी लगी थी भूख पर…।” पर क्या..? मांँ मैं अभी आई बाबूजी आते ही होंगे। ठीक है संभल कर जाना । मैं तेरे लिए फिर से खाना बनाती हूंँ।
मुनिया के बाबूजी काम से वापस घर पहुँचते ही,….अरे सुनती हो।मुनिया की मांँ ने कहा,”अभी आई..! क्या हुआ?क्यों आकाश पाताल एक किए जा रहे हो।क्या बला आ पड़ी।” बला नहीं इन बच्चों ने तो नाक में दम कर लिया ।आज तो मुनिया ने कुर्ते की जेब से एक नोट चुरा लिया ।मुनिया की मांँ बोली,”यह क्या कह रहे हैं आप,कहीं गिर गए होंगे रुपये।” अरे भाग्यवान !मैंने अपनी आंँखों से देखा है। मुनिया
की माँ ने कहा,”आने दीजिए मुनिया को मैं अभी खबर लेती हूंँ।”
मुनिया के वापस आते ही उसके कान पकड़ कर मांँ बोली,” क्यों-री मुनिया तूने बाबूजी के जेब से पैसे चुराए थे। चल सच बता।” हांँ मांँ मैंने लिए थे पर….। अगर तूने ऐसा दोबारा किया तो खाने को नहीं दूंँगी दो-चार दिन तो अकल ठिकाने आ जाएगी। मुनिया बोली,” ठीक है मांँ आगे से नहीं होगा।”
रात काफी हो चुकी थी। चांँद अपनी चमक दिन पे दिन कम कर रहा था। उसे तो नींद ही नहीं आ रही थी। वह सोचती रहती थी। कभी अपने बच्चों के बारे में तो कभी अपने पति के बारे में। पर आज यह कौनसी कयामत आ गई थी। मुनिया ने पैसे चुराए..। रात यूंँ ही बीत गई।
अगले दिन वह उठी रोज की तरह । होठों में मुस्कुराहट लिए हुए। ईश्वर को धन्यवाद किया क कि आज तुम सब की रक्षा करना। रास्ते में चलते हुए। उसके मन में विचार आया की कहीं आज फिर मुनिया…..न,न,न। कहीं किसी की संगत में तो नहीं आ गई। सहसा उसे याद आया कि अभी उसी दिन भर का बोझ भी ढ़ोना है। वह तीव्र चाल से पहुंची। तो देखा चला सभी अपने अपने काम पर लगे हुए हैं। उसी समय छोटे साहेब आ गए। छोटे साहब ने कहा,” क्यों री आज देर से कैसे आई?” वह बोली,” माफ करना साहेब थोड़ा बच्चों में…।” छोटे साहेब ने कहा,” ठीक है ठीक है कल से समय पर आना वरना पगार नहीं दूंँगा।” मनिया की मांँ बोली,” ऐसा जुल्म मुझ गरीब पर मत करें साहेब।कल से मैं जल्दी आ जाऊंँगी ।” वह दिन भर चुपचाप बोझा ढ़ोती रही। मन में उथल-पुथल होती रही, त्यौहार भी आने वाला था।
शाम होते ही घर पहुंँच कर मुनिया को देख चकित हो गई। वह बोली,” अरे मुनिया आज तूने फिर खाना नहीं खाया। कहीं पैसे तो नहीं आज बाबू जी के जेब से निकाले।” मुनिया ने कहा,” नहीं मैं ऐसा मत कह।” फिर तूने खाना क्यों नहीं खाया- मांँ बोली। मांँ आज भूख नहीं थी। ठीक है मैं अभी खाना पकाती हूंँ और तुझे अपने हाथों से खिलाऊँगी। मांँ अगर तुम रोज मुझे अपने हाथों से खिलाओ, तो मैं रोज शाम को ही खाना खाऊंँगी। चल जा पगली। अगर मैं और तेरे बाबूजी काम पर ना जाएंँ तो खाएंगे क्या?
अगली सुबह वह समय से काम पर पहुंँची। छोटे साहेब चौक कर बोले,” आज तू ठीक समय पर आ गई। सब खैरियत तो है ना। त्यौहार के दो दिन पहले अपनी पगार ले जाना।” ठीक है साहेब। वापस घर पहुंच कर मुनिया को पानी भरते हुए देख बोली,” आज बहुत खुश दिख रही हो।” मुनिया बोली,” हांँ मांँ बाबू जी आज जल्दी घर आ गए। तभी छोटे और मुनिया लड़ने लगते हैं। छोटे मुनिया से कहीं दो वर्ष ही छोटा था। मांँ बोली, “अरे! तू क्यों लड़ रहा है।” छोटे बोला मांँ,” मुनिया ने उस दिन बाबूजी के जेब से पैसे लेकर मिठाई लाई थी। उसने मुझे नहीं दिया था। आज मैं नहीं दूंँगा सारा खुद खाऊँगा।” माँ ने पूछा,” क्यों नहीं दिया था तुमने?” मनिया बोली,” उस दिन मांँ मुझे खाना अच्छा नहीं लग रहा था। तुम रोज काम पर जाती है तो मुझे भूख नहीं लगती।” चल चुप कर।
रात के समय वह करवटें लेती रही। मुनिया के पिता बोले,” अभी तक सोए नहीं भाग्यवान!” बस यूंँ ही आंख नहीं लग रही थी। आप भी तो नहीं सोए अभी तक। क्या हुआ सब खैरियत तो है ना। मनिया के पिता बोले,” नहीं भाग्यवान!आज मेरे मालिक ने मुझे काम से निकाल दिया। महामारी दिन प्रतिदिन दिन पैर फैला रही है।” मुनिया की मांँ,” हे भगवान!कैसी मुसीबत है यह। एक उम्मीद तो टूट गई अब।” मुनिया के मांँ का मन रखते हुए बोले,” कोई बात नहीं कल कहीं और तलाश लूंँगा। तुम्हारे होते हुए भला मुझे क्या दुःख।” काफी रात हो गई है। दीपक की लौ टिमटिमाते हुए बुझ गई।
एक हफ्ते गुजर जाने के बाद, छोटे साहेब को सहसा याद आया की त्यौहार नजदीक आ गया। मुनिया की मांँ को वहांँ न देख पूछा। अरे वह महिला दो-तीन दिन से काम पर नहीं आ रही। किसी ने कहा,” उसी महामारी ने घेर रखा है।” छोटे साहेब अन्य मजदूर से ,कल तुम लोग अपनी पगार ले जाना ।
सुबह होते हैं छोटे साहेब ।पगार लेकर मुनिया के घर की ओर बढ़े।मुनिया के माँ महामारी की पीड़ा सह रही थी।वह बाबूजी की ओर उम्मीदों भरी आंँखों से देखती।जीवन उम्मीद के सहारे टिका हुआ था।छोटे साहेब घर पहुंचते ही लोगों को दूर खड़े हुए देखते।मनिया की मांँ चारपाई पर लेटे हुए थी।छोटे साहेब को घर पर देख आंँसू निकल पड़े।लोग आपस में कह रहे थे कि भगवान त्यौहार के दिन किसी को ऐसा ना करें।छोटे साहब करीब पहुंँच कर पगार मुनिया के पिता के हाथों में रख दिए।मुनिया की मांँ की आंँखें खुली की खुली रह गई।छोटे साहेब के आंँखों से आंँसू यथावत निकल पड़े।
*** बुद्ध प्रकाश;
*** मौदहा,हमीरपुर।