उम्मीद का दामन थामे
आस्थाएं व मान्यताएं
निरन्तर तिरोहित हो रही थी,
जबकि उन्हें परिष्कृत कर
उत्तम बनाने की सोच थी।
उम्मीद का दामन थामे
सदियां गुजरती रही,
पर बात थी कि बस
वहीं की वहीं बनी रही।
आज तिरोहित होने के
नये नित मानक बन रहे,
इसी प्रतिस्पर्धा में सब
बस आकंठ है डूबे रहे।
भविष्य से बेजार सब
अतीत भी विस्मृत हो चला,
वर्तमान भी निरापद
उद्देश्य विहीन हो गया।
कहाँ तो तय था दीपक
हर एक मकान के लिये,
पर मिला एक भी नही
उस शमसान के लिये।
आस्थाएं दस्तूर बन गयी
मान्यतायें बस ढोही जा रही,
निरापद सत्य के बाजार में
झूट तबियत से बिकती रही।
कब्रिस्तान की तर्ज पर
पूरा शहर बसता गया,
नालियां मध्य में बनी
ईंट किनारे लगता गया।
निर्मेष अब तो ईश ही
मालिक है इस सनातन का,
कृपा जब उसकी ही होगी
उदित भाग्य होगा वतन का।
निर्मेष