उम्मीदों का पुनरमूल्यांकन
जब अपना ही दिल अपने से शिकायत करे तो फैसला किस अदालत से करवाएँगे? हम मनुष्यों के साथ अब ऐसा ही होने वाला है। लापरवाही की तो मानो आँधी चल पड़ी है। लोग भूल गए हैं कि अभी प्रतिबंध हटाए गए हैं, नियम नहीं। कोरोना दिख नहीं रहा, इसलिए पाबंदियाँ हटा ली गई हैं, लेकिन अभी पूरी तरह वह गया नहीं है। नियमों को जिंदा रखना अब भी जरूरी है। खुलेपन की ऐसी संक्रांत आई कि लोगों ने मास्क पतंग बनाकर उड़ा दिए। भीड़ का हिस्सा बनना, एक-दूसरे से सटने और धक्के देने की तो ऐसी प्रतिस्पर्धा चली कि सोशल डिस्टेंसिंग की समाधि बन गई। इस बीमारी को समझना पड़ेगा। बीमार तो बड़े से बड़े संत-महात्मा भी हुए। रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, तुलसी जैसे कई संत हैं जो बीमारियों से घिरे, लेकिन इसको लेकर उनकी समझ बिलकुल अलग थी। वे बीमार हुए, पर बीमारी से प्रभावित नहीं हुए। उनके केंद्र में तप व नियम रहे और परिधि पर बीमारी आई। हम लोग उल्टा कर रहे हैं। इस तरह लापरवाही का आचरण कर अपने केंद्र में बीमारी रख लेंगे और परिधि पर पटक देंगे | नियमों को गलत, गलत को दबाता नहीं, बल्कि उभारता है। यह गलती कहीं फिर किसी मुसीबत का उभार न बन जाए। इसलिए संतों से सीखिए बीमार होने से तो नहीं बच सकेंगे, लेकिन बीमारी को समझने में ही समझदारी है..।