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9 Apr 2024 · 2 min read

उमराव जान

उमराव जान—
बहुत मुश्किल था,इस फिल्म पर कुछ भी लिखने के लिए क़लम उठाना।
कुछ अच्छी होती हैं,कुछ बेहतरीन होती हैं,,,सिनेमा के इतिहास में उमराव जान, एक शाहकार है।
सिनेमा को मुजफ्फर अली की ओर से दिया गया,एक नायाब तोहफ़ा।
अमीरन से उमराव बनने तक का सफ़र रेखा के सिवा कोई और अदाकारा,उतनी साफ़गोई से अदा कर हीं नहीं सकती थी।
एक बड़ी हीं प्यारी बच्ची अमीरन,जो बदले की बिसात का मोहरा बना ली जाती है और लाकर लखनऊ के बाज़ार में बेच दी जाती है,,,यक़ीनन, गिरी हुई इंसानियत का इससे बेहतर नमूना मिल ही नहीं सकता।
किसी वालिद की परी और शहज़ादी बुलाई जाने वाली,कोठे पर पहुँचकर कैसे गिरे हुए लफ़्ज़ों का सामना करती है।
बदनसीबी का चलता-फिरता बुत बनकर रह जाती है,उमराव।
दर्द के न जाने कितने रंगों को उमराव की शख्सियत छूती हुई गुज़र जाती है।
एक बेहतरीन शायरा सच्चे इश्क की गिरफ्त में भी आती है मगर सड़कों की धूल माथे का चंदन नहीं बन सकती की तर्ज़ पर ठुकरा दी जाती है।
जब ये समाज किसी को अपनी सोच के दायरे में क़ैद कर लेता है,तो फिर वो इंसान उससे मुख्तलिफ हो के जी नहीं पाता।
उमराव कोई सोचा हुआ तसव्वुर न थी,सच्चा किरदार थी।
मुजफ्फर अली ने इसे दिल की गहराईयों से बनाया है,बेशक़।
एक तूफ़ान में तिनके की तरह कहाँ से कहाँ पहुँचती उमराव की जिंदगी से सबकुछ खो गया,,रिश्ता,प्यार, इज्जत,,,कुछ भी उसका न हो सका।
वह नज़ारा आपकी आँखों को नम कर देता है,जब उमराव वापस फैजाबाद आती है और अपनी माँ के गले लगकर ,बहुत रोती है।
भाई उसके लिए अपने घर के इज्जतदार दरवाज़े बंद कर देता है।
कुछ ऐसे होते हैं जो अपनी पूरी ज़िंदगी का सिला कुछ भी नहीं पाते सिवाय आँसुओं के,उमराव इसका जीता-जागता नमूना थी।
जिसे आप समाज की गंदगी कहकर नकार देते हैं,वह नकारने का नहीं,सुलझाने का मुद्दा है।
ख़ैर,,,फिल्म के नज़रिए से ये पूरी तबियत से बनाई गई एक खूबसूरत फिल्म है,,उर्दू को जिस नजाकत के साथ परोसा गया है,क़ाबिल -ए -तारीफ़ है,,,,
सबसे बड़ी दाद तो यही है कि कोई दाद देना भूल जाए,,,,
रिश्ता न हो तो आँखों में आँसू नहीं आते,,,
कभी कभी शम्मा की रौशनी भी आँखों को चुभ जाया करती है,,,,
कमाल है,, कमाल के संवाद हैं।
इसका संगीत और गाने,इस फिल्म के जड़ाऊ हीरे हैं,,
शायरी और मौसक़ी का लाजवाब कॉम्बिनेशन।
गौहर मिर्ज़ा का किरदार ,जिसे एक बेहतरीन कलाकार (नसीर जी)ने अदा किया ,अच्छे और बुरे का मिला जुला रंग लिए वो उमराव की हर वो मदद करता है,जो मुमकिन थी।
नवाब सुल्तान बने फारूक शेख़,फैज़ अली को जीवंत करते राज बब्बर,,,सब मँजे हुए कलाकार हैं।
मगर उमराव जान के किरदार को जिस तरह रेखा ने तराशा है,ऐश्वर्या उसमें कुछ कमतर रही हैं,मेरे नजरिए से।
खय्याम साहब का संगीत रूहानी है,ये किसी भी फिल्म को ऊँचाइयों पर पहुँचाने का माद्दा रखता है !!!!!
शुक्रिया!!

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