उपमान (दृृढ़पद ) छंद – 23 मात्रा , ( 13- 10) पदांत चौकल
उपमान (दृृढ़पद ) छंद – 23 मात्रा , ( 13- 10) पदांत चौकल ,
(दो दो पद समतुकांत , या चारों पद तुकांत )
सबसे सरल विधान
#दोहा_छंद_के_सम_चरण_में_एक_मात्रा_घटाकर_पदांत_चौकल #करने_से_उपमान_(दढ़पद ) छंद बन जाता है
उपमान छंद , विधान
दोहा का पहला चरण , दूजा दस जानों |
चौकल करो पदांत तुम , छंद बना मानों ||
लिखे छंद उपमान हम, लय सुभाष देता |
एक चरण ; तेरह-दस , भार यहाँ लेता
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उपमान (दृृढ़पद ) छंद – 23 मात्रा , ( 13- 10) पदांत चौकल ,
उपमान छंद ,{ विषय घड़ी }
घड़ी नहीं है आपकी ,भली रहे वह घर |
चलती अपनी चाल है , फैला अपने पर ||
करे इशारा वह सदा , कभी नहीं थकती |
बतलाती है वह समय ,चाल नहीं रुकती ||
घड़ी- घड़ी में लोग भी , रंग बदलते है |
कह सुभाष हँसती घड़ी , जब निज कहते है ||
यहाँ घड़ी हम छोड़कर , बनते खुद ज्ञानी |
काग सयाने सम बनें , करते नादानी ||
बड़ी घड़ी या लघु दिखे , समय एक रहता |
घड़ी समझती सब यहाँ , काँटा जब चलता ||
घड़ी कभी बँधती नहीं , हम खुद बँध जाते |
बार- बार हम देखते , बंधन ही पाते ||
टिक टिक करती है घड़ी , लोग करें खटपट |
मिटमिट करता काल है , हम कहते हटहट ||
मरने की आए घड़ी , तब बैठा रोता |
बँधी घड़ी चलती रहे , नर सब कुछ खोता ||
सुभाष सिंघई
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उपमान छंद , विषय – परीक्षा (मुक्तक)
सदा परीक्षा दीजिए , साहस ही रखना |
पास फेल चिंता नहीं , बस उद्यम करना |
हो जाती पहचान है , कौन यहाँ मेरा –
हो जाते साकार हैं , जो पालें सपना |
जगत परीक्षा कक्ष है, सुख दुख हम सहते |
यहाँ खोजना हल पड़े , साहस हम रखते |
समझों जो दाता जगत , कहलाता ईश्वर –
कभी परीक्षा लें उठें , वह चलते – चलते |
कभी परीक्षा में अजब , प्रश्न मिले करने |
अपने मन के हाल सब , लिख सुभाष सपने |
भाव हृदय पट खोलकर , लिखना है पड़ता ~
अपने दुश्मन लिख यहाँ , कौन यहाँ अपने |
सुभाष सिंघई
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उपमान छंद , गीतिका , विषय – सबसे अच्छा कौन ?
समांत – आरी , पदांत चर्चा
सबसे अच्छा कौन अब , है न्यारी चर्चा |
इधर-उधर की बात से , अब भारी चर्चा ||
डंका अपना पीटते , है मेरी लंका ,
शंका में है डालते , उपकारी चर्चा |
यहाँ मसीहा सब बनें , सबके सब नामी ,
चौराहों पर चल रही , लाचारी चर्चा |
जिन्हें चुना था छाँटकर , वह उल्टा चुनते ,
दिखती सुंदर रूप में , अब खारी चर्चा |
शोषण जिनका खुद किया , मर्यादा लूटी ,
आज करें उत्थान हित , वह नारी चर्चा |
उल्टे खेले खेल है , नियम सभी तोड़े ,
आज उन्हीं की कर रहे , सब पारी चर्चा |
समय नजाकत में चले , कुछ हम पहचानें ,
करे सुभाषा आपसे , कुछ जारी चर्चा |
लिखी गीतिका मित्रवर , कौन यहाँ अच्छा ,
मिला न उत्तर बंद है , अब सारी चर्चा |
सुभाष सिंघई
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उपमान छंद , {शारदे वंदना )
धवल वसन कमलासनी, ब्रम्हपुरी रहती |
लिपि श्रुति माँ वागेश्वरी , वाणी शुभ कहती |
वीणा पुस्तक धारिणी , जय शारद माता |
हंसवाहिनी दिव्य तुम , है तुमसे नाता ||
अक्षर-अक्षर ज्ञान की , तुम शुचि मम देवी |
भक्ति भाव से पूजता, तेरा मैं सेवी ||
पुस्तक मेरी मित्र है , जो ज्ञानी दाता |
हंसवाहिनी दिव्य तुम , है तुमसे नाता ||
पुस्तक में जो खो गया , बन जाता ज्ञानी |
माता तेरी है कृपा , गंगा सा पानी ||
चरण शरण से आपकी , बन जाता ज्ञाता |
हंसवाहिनी दिव्य तुम , है तुमसे नाता ||
वेद ग्रंथ या कुछ कहो, सभी नाम माता |
माँ शारद सबमें मिलें , मिलती सुख साता ||
आना मैया शारदा , भजन यहाँ गाता |
हंसवाहिनी दिव्य तुम , है तुमसे नाता ||
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उपमान छंद , मुक्तक , 13- 10 , पदांत चौकल (दीर्घ दीर्घ / लघु लघु दीर्घ )
समस्या – मरें तो हम कहाँ मरें ? 😇
पत्नी कहती प्रिय सदा , मुझ पर ही मरना |
उस पर मरता तब कहे , नाटक मत करना |
घर से बाहर घूमता , तब कुढ़कर कहती-
कहाँ मरे थे आज तुम, हमसे सच कहना |😇🙏
मिली राह में जब हमे , अपनी ही साली |
बोली मरने क्यों कहीं , रहते हो खाली |
मुझको मरना आपका, समझ नहीं आया –
जीजा तुम तो लाल हो , जीजी है लाली |
कहे पड़ोसन आप अब, कहीं नहीं मरना |
रहकर अपने गेह में , मन की तुम करना |
मरना है जाकर कहाँ , सीखो कुछ जग से –
इधर-उधर मत खोजना , नहीं जरा डरना |
जगह नहीं मरने कहीं , मिले नहीं छाया |
किस पर न्यौछावर करूँ , अपनी यह काया |
नहीं मानता दिल यहाँ , हम मरना चाहें –
मरकर भी जिंदा रहे , भरने को आहें |
मंदिर जाकर जब मिला , प्रभुवर तब बोले |
रे सुभाष तू बात सुन , कहीं नहीं डोले |
पत्नी पर मरना सदा , समझो गहराई –
कितनी चाहत वह रखे , होंठ नहीं खोले |
(समस्या ज्यों की त्यों , पत्नी के निकट पहुँच गई है 😇🙏)
मरें तो हम कहाँ मरें ?
सुभाष सिंघई
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उपमान छंद , 13 – 10 , पदांत चौकल (दो दीर्घ)
दौलत जिसके पास है , उसको पहचानो |
अंदर से कितना दुखी , कुछ आकर जानो ||
दौलत पाकर वह सदा , पैसा चिल्लाता |
बोझा ढ़ोता रात दिन , ढेंचू ही गाता ||
दौलत जिसके पास है , नींद नहीं आती |
पैसों की ही रात दिन , गर्मी झुलसाती ||
जितनी दौलत जोड़ता , उतनी कंजूसी |
बातचीत व्योहार में , बालों – सी रूसी ||
दौलत जिसके पास है , भरता है आहें |
तृष्णा मृग -सी पालता , रखता वह चाहें ||
पैसा भी उसको सदा , तृष्णा में लाता |
महिमा अपनी जानकर , उसको भरमाता ||
सुभाष सिंघई √
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सूरज चंदा है पथिक , ताप शीत देते |
कष्ट हमेशा आम जन , आकर हर लेते |
इनको माने जग सदा , यथा योग्य पूजे –
यही काम आएँ सदा , और न हों दूजे |
बिषधर पूजें सब यहाँ , खल बनते राजा |
आगे पीछे लोग सब , बजा रहे बाजा |
डसते जाते आम जन , कौन उन्हें टोकैं ~
डंका बजता राह में , कौन यहाँ रोकें |
सुभाष सिंघई
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राजनीति दंगल हुआ , चित्त हुआ नेता |
चमचा भी अब दूर है , खवर नहीं लेता ||
समय समय की बात है , बोतल अब खाली |
खुली धूप में दौड़ता , बागों का माली ||
सत्य प्रकट हो सामने , छलिया सब भागें |
अंधे अपने भाव से , अंदर से जागें ||
सच कड़बा जो मानते , हर्षित हो पीते |
लाभ मिले उनको सदा , मस्ती में जीते ||
मत चूकों चौहान अब , सुनो कवि की वाणी |
भितरघात जो भी करे , दुश्मन वह प्राणी ||
मूँछें अपनी ऐंठता , सम्मुख जो आए |
मर्दन पहले कीजिए , जो भी चिल्लाए ||
रखवाली झूठी दिखें , गड़बड़ है माया |
चिडि़याँ बदले कब कहाँ , खेतों की काया ||
लोग चतुर अब बन रहे , समझें सुल्तानी |
कर्म एक दिन बोलते , छाई बेईमानी ||
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उपमान छंद
महुआ की मधुरम महक , मादकता छाई |
यौवन लाया बाढ़ है , प्रीति निकट आई ||
महुआ टपके रस भरे , है रात नशीली |
साजन करते प्रेम से , अब बात रसीली ||
बौराया है अब पवन , छू महुआ डाली |
कहता है हर कान में , इस रस में लाली ||
महुआ फूला पेड़ पर , रस में है डूबा |
टपक अवनि की अंक से , हर्षित है दूबा ||
सुभाष सिंघई
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न्याय नीति के मिल रहे , हमको व्यापारी |
उच्च दरों से बेंचते , आज कलाकारी ||
नेता जी अब देश में , बनते उपयोगी |
हावी है अब न्याय पर , तिकड़म का रोगी ||
जगह-जगह हमको मिले, अब तिकड़मबाजी |
नेता के पहले करो , चमचों को राजी ||
मिलता उसको न्याय है , जहाँ दाम भारी |
वर्ना आती हाथ में , सीधी लाचारी |
एक न्याय देना प्रभू , सत्य वचन बोलूँ |
चरणों में लेना मुझे , बंधे पाप खोलूँ ||
शरण आपकी हो सदा , मिलवें सुख छाया |
रहे धर्म का ध्यान अब , करे भजन काया ||
सुभाष सिंघई
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उपमान छंद मुक्तक
सुख भी आता शान से , दुख भी है आता |
पर दोनों में फर्क है , दुख कुछ चिल्लाता |
सुख को भोगें आदमी , बनता अलवेला –
नशा द्रव्य का जब चड़े , तब ही मदमाता |
बचपन यौवन कब गया , पता नहीं होता |
देख बुढ़ापा पास में , तब बैठा रोता |
जीवन यह कुछ खास था, कभी नहीं माना ~
मौसम हरदम हाथ से , निज हाथों खोता |
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