====उनका जीवन भी हो खुशहाल====
“मेरे बेरंग सूने संसार का रंगों से क्या वास्ता”??
यह कोई फिल्मी संवाद नहीं बल्कि एक घिसा पिटा वाक्य है जो या तो हमारे देश की हर उस अभागिन जिसका कि पति इस दुनिया में नहीं होता अर्थात् एक विधवा स्त्री की जिव्हा पर विराजमान एक सुनिश्चित वाक्य है जो समाज का अधिकांश वर्ग उस दुखिया के मुंह से सुनना चाहता है या फिर तकदीर की मारी विधवा नारी विवश हो कर खुद ही इन मनहूस शब्दों को अपने ऊपर ओढ़ लेती है।
हमारे भारत वर्ष के पुरातन इतिहास पर यदि हम दृष्टिपात करें और अपने प्राचीन धर्म ग्रंथों का अध्ययन करें तो पाएंगे कि हमारे प्राचीन भारत में विधवाओं की स्थिति दयनीय न हो कर सम्मानजनक थी। रामायण व महाभारत काल में विधवाओं की स्थिति वर्तमान की अपेक्षा अत्यन्त सम्मान पूर्ण थी। रावण की विधवा पत्नी मंदोदरी तथा बाली की विधवा पत्नी के पुनर्विवाह का वर्णन मिलता है।
वर्तमान समय की स्थिति तो मध्य कालीन युग की देन है। मध्य युग के बाद शनैः शनैः
भारतीय समाज में बढ़ती विकृतियों के
फलस्वरूप समाज ने अपनी महिलाओं के संरक्षण हेतु परदा प्रथा के साथ साथ बालविवाह की कुप्रथा का भी प्रचलन प्रारंभ किया ताकि वे अपने घरों की स्त्रियों को सुरक्षित रख सकें व समुचित संरक्षण दे सकें। कालांतर में जिसके दुष्परिणाम के रूप में विधवाओं विशेषतः बाल विधवा की समस्या आ खड़ी हुई जिनके पुनर्वास, पुनरुद्धार व पुनर्विवाह के संबंध में समाज सदैव निरुत्तर अथवा मौन ही दिखाई दिया है।
यद्यपि यह सत्य है कि विधवाओं के उत्थान व संरक्षण के लिए मध्य काल के व आधुनिक काल के संधिकाल में कई समाज सुधारकों ने अपने स्वर मुखरित किए। बंगाल में ईश्वर चंद विद्या सागर जी ने अपने अथक प्रयासों के द्वारा अंग्रेजी शासन काल में अतियश सफलता प्राप्त की और अंततः वे विधवाओं के पक्ष में सन् 1856 में विधवा पुनर्विवाह कानून बनवाने व लागू करवाने में सफल रहे। यह देश व इस देश की महिलाएं उनके इस उल्लेखनीय योगदान को कभी भी विस्मृत नहीं कर सकेंगी।
तथापि हमारे भारतीय समाज के ग्रामीण क्षेत्रों में और कमोबेश नगरीय क्षेत्रों में विधवा को आज भी “अपशगुनी” या “दुर्भाग्यशाली” का विशेषण से नवाजने से नहीं चूका जाता। उन्हें किसी भी शुभ कार्य या शुभ अवसर पर उस स्थल पर उपस्थित नहीं होने दिया जाता है, सामने नहीं आने दिया जाता है। ऐसी आशंका जताई जाती है कि यदि कोई विधवा शुभ कार्य के समय सामने आ गई तो बनता काम बिगड़ जाएगा व अपशगुन हो जाएगा। इसलिए विधवा की छाया भी ऐसे वक्त पर नहीं पड़ी चाहिए। ऐसी स्त्री न तो रंगीन वस्त्र पहन सकती है और न ही श्रृंगार करने या सजने संवरने की ही अधिकारिणी होती है चाहे वह युवा उम्र हो अथवा अधेड़ावस्था की स्त्री हो। समाज में यह सब देखते सुनते पीड़ित स्त्री खुद-ब-खुद इन प्रतिबंधों को अपने ऊपर ओढ़ लेती हैं। जबकि इसके ठीक विपरीत विधुर पुरूष इन सभी निषेधों से मुक्त एक सामान्य जीवन सानंद व्यतीत करने के हकदार होते हैं।
एक अत्यंत हास्यास्पद विडम्बना यह है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण दृष्टिकोण हमारा समाज केवल “विधवाओं” के विषय में रखता है “विधुरों” के विषय में किसी भी प्रकार के निषेध लागू नहीं होते हैं। वे सामान्य पुरुषों की तरह सामान्यतः समस्त सामाजिक व धार्मिक कार्यों को करने के व उन में सम्मिलित होने के अधिकारों से सम्पन्न होते हैं। यदि कोई विधुर अपनी पुत्री का विवाह संपन्न करवाता है तो वह विवाह के प्रत्येक संस्कार में उपस्थित भी होता है और सबके सम्मुख भी आता है। तब ऐसे मौकों पर उस विधुर पुरुष को कोई “अपशकुनी” कह कर पीछे क्या नहीं हटाता??? यहां यह तथ्य उजागर होता है कि पुरुष वर्ग का एक खास गुण होता है कि यदि कुछ अपवादों को छोड़ दें पुरुष सदा पुरुष का हितैषी व समर्थक होते हैं । वे एक दूसरे का साथ देते हैं। इनमें नारियों की अपेक्षा एकता का गुणगान अधिक होता है। कई स्थानों पर यहाँ तक देखा गया है कि किसी व्यक्ति की पत्नी की मृत्यु हो जाने पर अंत्येष्टि संस्कार के पश्चात श्मशान स्थल पर ही उस व्यक्ति के पुनर्विवाह हेतु रिश्ते बताए जाने लगते हैं जबकि स्त्री के विषय में इस दुखद घड़ी कोई अन्य स्त्री द्वारा ऐसी बात करना तो दूर ऐसा सोचना भी अकल्पनीय है। इस कारण यह है कि पुरूष वर्ग को ऐसे पुरुष अर्थात् विधुर व्यक्ति से कोई एतराज नहीं होता।
विडंबना यह है कि इस विषय में पुरुष वर्ग ने कभी नारी जाति का विरोध नहीं किया अपितु ऐसे अवसरों पर सदैव नारी ही नारी के आड़े आती रही है। क्षमा कीजिएगा मैं स्वयं एक स्त्री हो कर भी इस कटु सत्य से नहीं मुकर सकती कि पुरुष की अपेक्षाकृत नारी आपस में ईर्ष्या व द्वेष की भावना अधिक रखती है। नारी की प्रकृति में उपस्थित यह एक बड़ा नकारात्मक पहलू है। यद्यपि अपवाद स्वरूप नारियों में भी कई प्रगति शील विचार धारा वाली स्त्रियाँ मौजूद हैं जिनकी कामना सबका हित समान रूप से करने की होती है किन्तु उनका स्वर नक्कारखाने में तूती अथवा ऊंट के मुंह में जीरे के समान नगण्य प्रतीत होता है। उन्हें विधवाओं के प्रति अपनी सकारात्मक सोच को मनवाने के लिए समाज का भारी विरोध झेलना पड़ता है।
नारी समाज को अपने बीच में उपस्थित ऐसी महिलाओं को सहारा देने के लिए आगे आना होगा। उनका संबल बनना होगा। उन्हें हताशा से बचाना होगा। यदि ऐसी महिला इच्छुक हों तो उनके पुनर्विवाह हेतु सत्प्रयत्न करके समाज को इस सुकार्य हेतु तैयार करना होगा। यदि महिला बेरोजगार, बेघर हो उनके रोजगार व पुनर्वास के लिए सहयोगात्मक प्रयास करने होंगे ।
आवश्यकता है महिला समाज की एक जुटता की/वैचारिक तुच्छता से ऊपर उठने की/ईर्ष्या व द्वेष की मलीन भावना मिटाने की /कुछ सटीक सोच बनाने की /उसे साकार रूप में बदल कर कुछ गुजरने की/अपने सार्थक प्रयासों को कार्यरूप में परिणत करके भारतीय समाज की दूषित सोच को समूल नष्ट करने की /भारतीय सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करने की। आइए हम सब मिलकर इस शुभ कार्य की पहल चहुँ ओर से करें। यह दायित्व हम महिलाओं का है। हमें विधवा शब्द के लिए अपनी पुरानी सड़ी-गली सोच को अपने मन मस्तिष्क से विसर्जित करना ही होगा।
—–रंजना माथुर दिनांक 23/11/2016
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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