*उधो मन न भये दस बीस*
लेखक – डॉ अरुण कुमार शास्त्री – स्थान दिल्ली
विषय संवेदना
शीर्षक – उधो मन न भये दस बीस
विधा स्वछंद काव्य
प्रेम का निसर्ग और उन्मान अति निराला होता है ।
प्रेम के लिए लैंगिक प्रतिमान निरर्थक होता है ।
माँ का प्रेम अपनी संतान के लिए नैसर्गिक कहलाता ।
स्वार्थ रहित इस प्रेम का अर्थ कौन है समझ पाता ।
पिता के प्रेम का आधार कभी स्पष्ट नहीं होता ।
लेकिन बिना पिता के संतति विकास पूरा नहीं होता ।
राधा माधव निर्गुण जीव पृथ्वी लोक पर प्रगट हुये ।
गोप गोपिका उनके संग से अध्यात्म रूप से निखर गए ।
प्रेम का निसर्ग और उन्मान अति निराला होता है ।
प्रेम के लिए लैंगिक प्रतिमान निरर्थक होता है ।
बिन संवेदना के देखो लोगों इंसान पनप नहीं पाता है ।
सिर्फ पाँच तत्व का माँस लोथड़ा मानस ये रह जाता है ।
नारी पुरुष के आकर्षण में संवेदना का समावेश न हो ।
ऐसा चमत्कार तो भाइयों विष तिनदुक हो जाता है ।
जो प्राणी करते मनमानी वे संवेदन शील कहाँ होते हैं ।
बात – बात पर दिल को दुखाते नमक बुरकते रहते हैं ।
प्रेम का निसर्ग और उन्मान अति निराला होता है ।
प्रेम के लिए लैंगिक प्रतिमान निरर्थक होता है ।
तेरा मेरा बहुत सुन लिया अब मन मेरा धबराता है ।
मानव जनम मिला है देखो काहे इसे गँवाता है ।