उदासियाँ भरे स्याह, साये से घिर रही हूँ मैं
उदासियाँ भरे स्याह, साये से घिर रही हूँ मैं
कह नही सकती जी रही हूं या मर रही हूँ मैं
जिस्म कराहते रहे, अब रूह भी आहत हुआ है
देख अब अपना “ पर” खुद ही क़तर रही हूँ मैं
बड़ा गुमान रहा मुझे सदा, तेरा साथ होने का
इसीलिए, इसीलिए शायद अब बिखर रही हूँ मैं
मेरे साथ रहकर तुम्हें, कभी सुकून नही मिला
तुम्हारे लिए तो _पर्णविहीन शज़र रही हूँ मैं
दूर तलक मेरे अंदर, एक सन्नाटा सा पसरा है
इस बज़्म-ए-जहाँ का कोई वीरान् शहर रही हूँ मै