ई-संपादक
ई-संपादक
उनकी बचपन से ही बड़ी इच्छा थी कि वे लगातार स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में छपें, उन्हें साहित्यिक सेवाओं के लिए विभिन्न विश्वविद्यालय मानद उपाधि प्रदान करें। उनकी लिखी रचनाओं पर सभा, संगोष्ठियों में चर्चा हो। उन पर समीक्षाएँ लिखे जाएँ। विश्वविद्यालयों में उनके साहित्य पर शोध कार्य हो। उन्होंने बहुत कुछ लिखा भी, पर उनकी रचनाएँ गिनी-चुनी ई-मैगजीन और सहयोग राशि के बदले छपने वाली साझा-संकलनों तक ही सीमित रहीं। उन पर कोई चर्चा तक नहीं होती। बस वे अलमारियों की शोभा बढ़ातीं।
बहुत सोच-विचार के बाद उन्होंने कम्प्यूटर टायपिंग और डिजाइनिंग सीखी और एक त्रैमासिक ई-मैगजीन निकालना शुरू किया। सहभागी लेखकों और कवियों को ई-प्रमाण पत्र के माध्यम से क्रमशः ‘प्रेमचंद सम्मान’ और ‘सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ सम्मान बाँटने लगे। सोसल मीडिया में खूब प्रचार-प्रसार किया गया। परिणाम आशा के अनुरूप ही रहा। बड़े-बड़े साहित्यकार अपनी रचनाएँ भेजने लगे।
इन सबसे उनका हौंसला बढ़ने लगा। अब उन्होंने एक मासिक ई-मैगजीन निकालना शुरू कर दिया। इक्कीस हजार रुपए शुल्क अदा कर संरक्षक बनने वाले लोगों को दानवीर कर्ण सम्मान और ग्यारह हजार रुपए देकर आजीवन सदस्य बनने वाले लोगों को दानवीर भामाशाह सम्मान का ई-प्रमाण पत्र बाँटने लगे। वे संरक्षक और आजीवन सदस्यों का आकर्षक साज-सज्जा के साथ सचित्र विस्तृत जीवन परिचय मैगजीन में जरूर छापते।
अब साहित्य जगत में उनकी पूछ परख होने लगी है। स्थानीय साहित्यिक आयोजनों में जहाँ पहले उन्हें कोई पूछता तक नहीं था, अब ससम्मान मंच पर विराजने लगे हैं। सोसल मीडिया में भी छाए रहते हैं। उनके संपादन या कहें डिजाइन किए हुए त्रैमासिक और मासिक पत्रिका के पेजेस जमकर लाइक, कॉमेंट्स और शेयर हो रहे हैं।
संरक्षक और आजीवन सदस्यता बढ़ने से उनकी आर्थिक समस्या भी दूर हो गई है।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़