इज़हारे अन्दाज़
व़हम एक नास़ूर है जिसका कोई इलाज नहीं होता ।
ये ज़ेहन में पलता है और द़िल तक को बीमार कर देता है।
इश्क़ की च़ाहत में मैंने क्या क्या ग़म उठाए हैं।
दोस्त भी लगें दुश्मन अपने भी हुए पराए हैं।
कल तक जो अजनबी सा था क्यों आज अपना सा लगने लगा है। शायद मैं दिम़ाग से कम द़िल से ज्यादा सोचने लगा हूं।
उसकी मासूमियत आँखों से बयाँ होती है।
होंठ चुप रहते हैं पर आँखों आँखों में बात हो लेती है।
मेरी नज़रों का धोख़ा था या द़िल का क़सूर ।
जिसे दोस्त माना वो तो मेरा दुश्मन निकला।