इस शहर में…..
81..
30.4.24
बहर-ए-हिन्दी मुतकारिब मुसद्दस मुज़ाफ़
फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़े
22 22 22 22 22 2
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इस शहर में दूध का कोई धुला नहीं है
आदमी सा आदमी मुझको मिला नहीं है
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यों कभी देखे तुझे आता था जरा क़रार
औरो से तू , मानता हूँ ख़ुद भी जुदा नहीं है
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आसमान से खींच कैसे तुझ को बाँट दूँ मै
मेरे हिस्से और तो हासिल अब हवा नहीं है
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क़फ़स के जैसे घरों में हम कैद रहते है
आदमी होने का सपना जो बुना नहीं है
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बाद जाने के तू याद भी रह जाएगा
क़्या कहूं तेरा जाना दिल से अखरा नहीं है
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हो गए हालात अब काबू से हमारे बाहर
तजुर्बे में इससे बड़ा और आकड़ा नहीँ है
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क्यूँ उठा लाई हो खुशबू भरे पुराने दिन
मैंने इनको आदतो क़ोई गिना नहीँ है
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भाइयों से ख़ूब लड़ के मै थक गया इसीसे
सोचता हूँ अब अदावत से फ़ायदा नहीं है
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पाँव भारी अंगद के जिस निजाम रखे
शक की बुनियादें हिली हमको पता नहीं है
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बारूदी धुए में इस शहर को बाँट दो तुम
मैं रहूँ बीमार मेरी मेरी दवा नहीं है
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सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर
जोन 1 स्ट्रीट 3 दुर्ग छत्तीसगढ़