इसको बचा लो यह मर रही धरती
इसको बचा लो यह मर रही धरती
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कहीं पर सूखा कहीं बाढ़ की विभीषिका है,
कहीं वन ख़ाक होते आग यूँ पसरती।
कहीं पेड़ काटते हैं बेतहाशा लोग और,
कहते इमारतों से है धरा सँवरती।
किंतु वसुधा तो पेड़ पौधों से श्रृंगार करें,
कितना अधिक उपकार रोज करती।
यदि तुम्हें अपनी बचानी नई पीढ़ियाँ तो,
इसको बचा लो यह मर रही धरती।।1।।
बम और गोले तुम हो बनाते किसलिए,
किसलिए और यह फौज की है भरती।
एक दूसरे को तुम मारते हो काटते हो,
एक दिन ये धरा ही हो न जाये परती।
एक ही मनुष्य जाति भेदभाव क्यों भला ये,
बनें कई देश भेंट एक थी कुदरती।
वक्त है अभी भी सुनो मिलजुल रहो तुम,
इसको बचा लो यह मर रही धरती।।2।।
जन्म दर में थोड़ा करो निषेध बंधु मेरे,
वरना बचेगी नहीं सभ्यता उभरती।
जाने किस ओर लोग बढ़ते ही जा रहे हैं,
बात यह रोज रोज हाय रे अखरती।
हम ये विकास का जो बुनते रहे हैं जाल,
इसको विनाश की है चुहिया कुतरती।
जीना यदि चाहते हो कुछ तो करो ख़याल,
इसको बचा लो यह मर रही धरती।।3।।
– आकाश महेशपुरी
दिनांक- 11/07/2019