इश्क इवादत
रातों को नींदे जगाने लगे हो
अक्सर ख्वाबों में आने लगे हो
मिलता नहीं अब तकल्लुफ कहीं
एक तुम ही दिल में समाने लगे हो
उदू लगता है ये जमाना हमें
एक तुम ही बस भाने लगे हो
बड़ चुकी हैं चाहत ए वस्ल की
हदें इस कदर तुम मिटाने लगे हो
न इल्म हमें है रदीफ़ काफिया का
जज्बा ए गजल तुम बनाने लगे हो
मेरा इश्क ही मेरी इवादत मेरे मौला
रूह ए सजदे में लौ तुम जलाने लगे हो
है रौशन तुम ही से प्रतिभा का आलम
उल्फत ए बे खुदी तुम अब बताने लगे हो
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