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29 Sep 2024 · 1 min read

इन हवाओं को न जाने क्या हुआ।

इन हवाओं को न जाने क्या हुआ।
आजकल कुछ रुख़ है बदला सा हुआ।

वक़्त ने समझा दिया सब कुछ उसे,
कल तलक जो शख़्स था पहुंचा हुआ।

कब मुकम्मल इश्क होता है यहाँ,
बस ज़माना देख लो गुज़़रा डुआ।

वो दीवाना था, कि पागल क्या ख़बर,
जाने कैसे भीड़ में तनहा हुआ।

था बुढ़ापे का सहारा एक ही,
बुझ गया वो भी दिया जलता हुआ।

बन्द किस किस को करोगे तुम यहाँ,
है नशे में हर कोई बहका हुआ।

नफ़रतों की फ़स्ल बढ़ती जा रही,
आदमी इंसानियत खोता हुआ।

मुस्कुराहट में छुपे हैं राज़ कुछ,
या समंदर दर्द का उमड़ा हुआ।

इन सियासी दांवपेचों में महज़,
आम इंसा दिख रहा पिसता हुआ।

पंकज शर्मा “परिंदा”

Language: Hindi
54 Views
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