इन्तजार
ग़लती हो गई,
ताउम्र निकल गई,
नया ज़माना ,जो
आने को था, बस
इन्तज़ार करते रहे,
अक़्ल , और, हौसला,
हुआ ही नही,
ललकारने का,अपने
घर,और, बाहर को ।
बाबा की लाठी,
अम्माँ के ऑंसू,
दीदिया का पीहर,
मुनिया की शादी,
गॉँव की शोहरत
की बर्बादी ,
नाच जाते थे,
एक साथ ही,
आँखों के सामने ।
क़दम ,लड़खड़ा जाते
थे,देहरी से बाहर,
रखने के पहले ही ।
किसने और कब
करवट ली,
पता नही चला,
आँखों का पानी,
खारा,सागर का है,
गागर से नाता
ही क्यों रखना !
सौदा, समझौता का
उम्दा,सरे बाज़ार है,
जंगल और जंजाल ,
रिश्तों के,दिल के,
बिना तौल- मोल के,
नये ज़माने में,
अब नहीं बँधना !
हवा मे ,पानी में,
घुला है ज़हर ,
हल्का ,हल्का सा,
असर उम्र की
शाम में ही,
रंगत लाएगा,
अभी मौसम बस
इन्तज़ार का है !
डा॰ नरेन्द्र कुमार तिवारी ।