इन्तज़ार
मुद्दत हुई इस इंतजार में
कि सुकूं को आंखों में ले
गिरा लेती मैं पलकें
कि तुम आए ही नहीं
इन आंखों से मिलने।
तराशती रही मैं खुद को कि
ज़माने से लड़ सकूं
कभी तो शायद
पर तुम थे ही नहीं
कि पूछूं अब क्या करूं मैं।
शून्य में खड़ा एक अहसास बेहद अनकहा,
खुद भी अनकही हो जाने को
बेबस बेताब मैं
नज़रों में पालती शिकवों की
अनसुनी आवाज़ मैं
तुम्ही में समा जाने को आतुर एक
अधूरा ख्वाब मैं
तन्हा रही भीड़ में खुद में खोई
अनजानी तलाश मैं
मासूम माजी से नाराज़ बेचैन
सयाना आज मैं
कतरा भर भी ना बयां कर सका
वजूद खोजता एक अल्फ़ाज़ मैं
एक बार तो गाओ, मेरे संग
सुर छेड़ता सूना साज़ मैं,
ना महको तुम वीरां मकां में
गुल की तरह मगर
फिर भी तुमसे ही आशियां
और तुम्हारा अहसास मैं।
ना आओ, थकान नजर की
दिखती ही नहीं तुम्हे,
फिर भी तुम्हारा ही सिरहाना
और तुम्हारे पास मैं।
© डॉ सीमा