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13 May 2024 · 1 min read

इतनी के बस !

जान देने की मेरी तैयारियाँ इतनी कि बस।
और जीने की मेरी लाचारियाँ इतनी कि बस।।

सबके होठों पे सजी है मुस्कुराहट देखिए,
और आँखों में छिपी मक्कारियाँ इतनी कि बस।

जबकि ख़ाली हाथ जाना है सभी को एक दिन,
लोग भरते हैं मगर अलमारियाँ इतनी कि बस।

जो नवाज़े जा रहे हैं रोज़ अपने मुल्क़ में,
नाम उनके दर्ज़ हैं ग़द्दारियाँ इतनी कि बस।

इश्क़ है इक बन्दगी लेकिन मियाँ ये जान लो,
इश्क़ की राहों में हैं दुश्वारियाँ इतनी कि बस।

नफ़रतों के बीज बो कर आदमी के ज़हन में,
इस सियासत ने चखी तरकारियाँ इतनी कि बस।

इस तरक़्क़ी ने कहीं का भी नहीं छोड़ा हमें,
रोज़ ही बढ़ने लगी बीमारियाँ इतनी कि बस।

आग के किरदार को समझें तो आख़िर किस तरह,
राख़ के नीचे मिली चिंगारियाँ इतनी कि बस।

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