इकलौते बेटे की माँ
“इकलौते बेटे की माँ ”
“अच्छा माँ, अब मैं चलता हूँ। यहीं से मैं एयरपोर्ट चला जाऊँगा।फ्लाइट का भी समय हो रहा है और घर जाकर भी क्या करूँगा?
वहाँ किससे मिलना है? काश! कोई तो होता जिसे हम अपना समझते।” ये बात सुशील ने अपनी माँ को वृद्धाश्रम में छोड़ते हुए बड़े ही भारी मन से बोली।
जब इकलौता बेटा पैर छूकर चला तो माँ उसे तब तक देखती रही जब तक उसकी टैक्सी नज़र से ओझल नहीं हो गई। और उसके बाद फूट-फूट कर रोने लगी।
उसको रोता देखकर वृद्धाश्रम की एक दूसरी महिला उसके पास आई और उसे समझाने लगी।” बहन रो मत, जो किस्मत में लिखा होता है ,वह होकर रहता है। क्या कर सकते हैं?
“नहीं बहन, किस्मत तो हम स्वयं लिखते हैं।”
सुमन ने कहा- “राधा बहन, अगर हमने अपनी दो -दो बेटियों को कोख में न मार दिया होता तो आज यह दिन न देखना पड़ता। इकलौता बेटा नौकरी के लिए विदेश चला भी जाता लेकिन वृद्धाश्रम का मुँह नहीं देखना पड़ता।अपनी किसी बेटी के घर चली जाती। ”
इतना कहकर सुमन की दृष्टि शून्य की ओर ताकने लगी।वह अपने अतीत में खो गई।उसे महसूस हुआ कि आज मेरे साथ जो हो रहा है वह मेरे पापों की ही सज़ा है।
डाॅ बिपिन पाण्डेय