इंसान
टोकरी फल की बढ़ा दी मैंने इक मजलूम को,
भूख तो इतनी लगी थी पत्ते तक खा जाता मैं।
दर्द उसका था, तो था सहना उसी को,
मैंने उसके साथ तो बस आह भर दी ।।
बांटना था दुख, खुशियों में गुन गुनाना था,
थे क्या ऐसे लोग, क्या ऐसा भी जमाना था?
दौलतों की दौड़ का घोड़ा बना तो क्या बना,
ले मजे इक बार “संजय” गमखोर सा इंसान बनके।