इंसानियत
दंगे के विरोध में मोहल्ले के चार घनिष्ठ मित्र एकजुट हुए। संयोग से चारों मित्र अलग-अलग धर्मों के मानने वाले थे। उन्होने एक बैनर बनवाया, जिस पर लिखा था — “मानवता पर रहम करो, दंगा ख़त्म करो।”
चारों संयुक्त स्वर में नारे लगाते गुए बैनर उठाये सड़क पर चलने लगे। शहर में दंगे का खौफ अब भी पसरा हुआ था। इसलिए कर्फ़्यु में ढील के बावजूद कोई भी घर से बाहर निकलने का जोखिम नहीं उठा रहा था। लोग-बाग अभी भी डरे-सहमे घरों में दुबके बैठे हैं। पता नहीं, कब कहाँ से, कौन-सी बल टूट पड़े? इंसान तो इंसान कालोनी के आवारा कुत्ते तक न जाने कहाँ ग़ायब थे। चारों तरफ दृष्टि पड़ने पर लुटे हुए घर … उजड़ी हुई दुकानें … यत्र-तत्र टूटी-फूटी गाड़ियाँ। गाड़ियों के बिखरे हुए शीशे। जले हुए ट्रक और बसों के अवशेष … सारी चीज़ें कुल मिलाकर दंगों की दर्दनाक कहानी बयान कर रही थी।
“खून-ख़राबा बंद करो। मानवता पर रहम करो। दंगा ख़त्म करो।” यकायक चारों मित्र तेज स्वर में नारे लगाने लगे।
“कौन हो तुम लोग?” सड़क किनारे घायल पड़े व्यक्ति का स्वर उभरा।
“मै हिन्दू हूँ … राम सिंह नाम है मेरा।” पहला व्यक्ति बोला।
“मै रहीम ख़ान … कट्टर सुन्नी मुसलमान हूँ।” दुसरे ने कहा।
“ओ बादशाहो अस्सी सरदार खुशवंत सिंह … अमृतधारी सिख, वाहे गुरु दा खालसा, वाहे गुरु दी फ़तेह।” पगड़ी ठीक करते हुए सरदार जी बोले।
“और मै जीसस क्राइस्ट को मानने वाला इसाई जॉन डिसूजा हूँ।” चौथे ने अपने गले पर लटके लाकेट को चूमकर कहा। जिस पर सलीब में लटके ईसा मसीह का चित्र था।
“अफ़सोस तुम चारों में से कोई भी इंसान नहीं है,” उसने मायूसी से कहा,
“तुममे से एक ने भी नहीं कहा–मै इंसान हूँ। मेरा धर्म इंसानियत है।”
“तुम्हारा क्या मतलब है?” राम सिंह चौंका, “यह बैनर नहीं देख रहे हो। जो हमने दंगे के विरोध में उठाया है … सिर्फ़ मानवता को बचाने के लिए, और तुम कहते हो हम इंसान नहीं हैं। अलग-अलग धर्मों के होते हुए भी हम चारों मित्र एक साथ खड़े हैं सिर्फ़ इंसानियत की ख़ातिर।”
“यह धर्म ही तो है, जिसके कारण आज मानवता का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। जब तक आदमी मजहबी चोला पहने हुए है कभी इंसान नहीं बन सकता,” उसने दर्द से कराहते हुए कहा।
“लेकिन तुम्हारी ये हालत की किसने?” रहीम ने पूछा।
“धर्म के ठेकेदारों ने … उन्होने पूछा तुम कौन हो? मैंने कहा, मैं तुम्हारी तरह इंसान हूँ। उन्होने फिर पूछा तुम्हारा धर्म क्या है? मैंने कहा — इंसानियत … और उन्होने मुझे छूरा मार दिया। यह कहकर कि स्साला स्याणा बनता है। ये देखो मेरे घाव …,” कहकर उसने करवट बदली। आधे से ज़्यादा चाकू पेट में घुसा हुआ था और उसके नीचे की धरती लाल थी।
“अरे तुम्हारा तो काफी खून बह गया है, तुम्हे तो अस्पताल …,” मगर आधे शब्द राम सिंह के मुंह में ही रह गए क्योंकि इंसानियत दम तोड़ चुकी थी और चारों मित्रों ने बैनर को कफ़न में तब्दील कर दिया।
राम सिंह के दिमाग़ में गोपालदास “नीरज” की ये पंक्तियाँ गूंजने लगीं, जो उसने किसी कवि सम्मलेन में सुनी थीं–
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाये जिसमे इंसान को इंसान बनाया जाये….