आहूति
सुनसान दोपहर में
आहट पवन की
पीछे मुड़कर देखा
एक छाया, तुम्हारे स्मृति की
केले के पेड़ के फटी हुई पन्नों से
आधा छिपता, आधा दिखता
गुम्बद मंदिर का
चेष्टा एक मूर्ति गढ़ने की
मगर
ज़िद्दी नदी का चंचल पानी
मिटाने न लगें पदचिन्ह मेरे।
कमजोर नजर
धुंधले पन को खिंचकर
बाहर निकालने की कोशिश
किंतु
वो भी अभिन्न अंश मेरे अंग का
स्वप्न तो जैसे
काठपुतली के वर-वधू
उलझ जाते हैं उस पतली सी डोर में
बीते दिनों का पन्ना पलट कर
प्रवेश कर रही हूँ
तुम्हारे भीतर
बीते हुए एक मुहूर्त के लिए
मैं ढूंढ नहीं पाई रही हूँ
खुद को
तुम को
फिर भी पार करती जा रही हूँ
प्रतिध्वनि की पदचिन्ह
जी रही हूँ ,
मैं एक इज्या
शब्दों से भरे एक पृष्ठ में
पुराना एक
अल्पविराम जैसे।
इज्या – यज्ञ
पारमिता षडगीं