“आशा” के दोहे ‘
आयो सुख, साथी सबै, लगै बढ़ी औकात,
दुरदिन, दूरी दै गए, बूझत कोउ न बात।
मीन जु बिछुरी ताल तेँ, कुनबहु छोड़त साथ,
बिपदा की सीखैँ अनत, कहि गए “आशादास”।।
पोथी रटि-रटि, करि रहे, ऊँचे बोल बखान,
परख करै जो साधु की, सोइ कहात सुजान।
“आशा” हरि विसवास कौ, कोई मोल न मान,
जो समझै पर पीर कौ, ता सम कवन महान।।
चाह, चकोरी, चन्द्र की , लखति रैन कटि जात,
अँगारन मा छबि दिखै, तुरतहिं चोँच चलात।
माया मोहिनि मनुज की, ब्यरथहिँ मन भरमात,
प्रीत भली हरिनाम की, कहि गए “आशादास”।।
कीजै सँगति साधु की, भले चित्त नहिं भात।
दुर्योधन कौ का भयो, वँशावलि मिटि जात।।
पोथी रटि-रटि करि रहे, ऊँचे बोल बखान,
ढाई आखर जो गहै, मिलि जावैं भगवान।।
सोचत-सोचत जुग भये, कहँ हरि नाम सुहात।
मरा-मरा जपि तरि गए, बाल्मीकि बिख्यात।।
चाह गई, चिन्ता मिटी, कहँ बिपत्ति आभास,
धन्य सोच परलोक की, कहि गए “आशादास”।।
कहत लौमड़ी काग ते, मीठे तेरे बोल,
मुँह खोलत रोटी गिरी, झूठ बड़ाई मोल।
झूठौ जग, झूठी कथा, झूठ शीश चढ़ि बोल,
थकत न “आशादास” कहि, मिलत ढोल माँ पोल।
सोई मित्र कहाइये, जैसो लागै सूप,
कूड़ा करकट करि अलग, चमकावै ज्यों धूप।
महिमा झूठी चन्द्र की, सुन्दरता इतरात,
निकसत ही सूरज सबहिं, पल भर मा बिसरात।
ब्रिक्ष बढ़त, मजबूत तन, फलन भार झुकि जाइ,
सदगुन अदभुत, नम्रता, काहि मनुज बिसराइ।
भाइ कन्हाई नम्रता, साग बिदुर घर खाय,
दम्भी दुर्योधन मिट्यो, दीन्हो बन्स नसाय।
मन्दोदरि की बात कहँ, तनिकहुँ रावन भाइ,
दुर्दिन, रावन परि परे, लीन्ही लँक जराय।
ज्यों ज्यों नर ऊँचो उठै, त्यों-त्यों शीश झुकाय।
अहम त्यागि, जीवन सुफल, “आशादास” कहाय।
महिमा अदभुत प्रीत की, काहे जिया जरात,
कहँ कोऊ यह जग बनत, सुख मा ” आशादास “।
दम्भ, द्वैष, दुर्भावना, क्रोध, लोभ, अज्ञान,
परनिन्दा, परदुख खुसी, दुर्जन अवगुन जान।
कामधेनु कै गुनन पै, विश्वामित्रहिँ प्यार,
गुरु वशिष्ठ इनकार पै, कीन्हों क्रोध अपार।
सृजित नयी सेना भई, युद्ध मा भई हार,
मुख मलीन लैकै भजे, अब तप करत हजार।
परशुराम के क्रोध की, कथा सीख दै आज,
दास आपकौ कोउ करै, धनुष तोड़िबै काज।
राम बचन मीठे सुनत, ऋषिवर करत विचार,
गरिमा शान्त स्वभाव की, अकथ कथा सँसार।
बात अकारन ही बढ़ै, वाद बनत कुविवाद,
थकत न “आशादास” कहि, व्यर्थ होत अतिवाद।
नारद, राधा ते, जले, मनमोहन समुझाय,
चरणामृत दीन्हो नहीं, हरि कौ मूड़ पिराय।
मिली खबर जब राधिका, नरक न तनिक डेराय,
पाँव धोइ तुरतहि दियो, कान्ह बिथा मिटि जाय।
उन्नति हिय हरषै नहीं, कबहुँ न मित्र सराहि,
मिसरी हूँ करुई लगै, बइठे नीम चबाय।
मन भटकत सन्मार्ग ते, चिता समान जलाय,
डाह, द्वैष अवगुन मनुज, “आशादास” कहाय।।
जलधि, अवज्ञा राम सुहावा,
तीन दिवस, नहिं मार्ग दिखावा।
भय दरसाइ प्रीति समुझावा,
साधुवचन, महिमा बतलावा।
विनय जु कीन्ह,सकल फल पावा,
अहँकार नहिं, हरि मन भावा।
फलनभार, बृच्छ, झुकि जावा,
लगि खजूर, सब जगहिँ छलावा।
मर्यादा कौ, मरम सुनावा,
“आशादास”, रामगुन गावा।।
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मूँदड़ि रोई रैन भर, दरस न सुन्दरि होय,
नकबेसर कै भाग खिल, अधर छुअत कँह कोय।
राग-रँग, बिद्वैस, भ्रम, सिगरो जीवन खोय,
जग मिल्या, रब ना मिल्या, का पछताए होय।
मूँदड़ि # अँगूठी
नकबेसर # नथ
राग-रँग मँह जगत कै, दीसत दौस न रात,
हार जीत कै खेल मँह, भलो बुरो न सुझात।
कोउ रम्यौ कौतुक, कुपथ, कोऊ दृढ़ बिस्वास,
कहाँ कछू हरि ते छुपत, कहि गए “आशादास”।
पोथी पढ़ि-पढ़ि मरि मिटे, पै दृढ़ नहिं बिस्वास,
मरा-मरा, मन ते भजै, सोई हरि कै पास।
दुर्योधन कै दम्भ ते, ठनी युद्ध की बात,
बन्स मिट्यो, इज्ज्त गई, छिन्यो राज अरु पाट।
मेवा, मिश्री त्यागि कै, अहम् कुठाराघात,
साग खाइ कै बिदुर सँग, वत्सल हिय कहलात।
शबरी चखि-चखि बेर रखि, हरि कहँ खाइ अघात,
महिमा श्रद्धा, विनय की, कहि गए “आशादास”।।
मीठे बनिकै छुरी चलावत, भरी ढोल मा पोल,
“आशादास” कहात बनै नहिं, बात-बात मा झोल।
सोच सोच कर, क्यों मन व्याकुल, जीवन है अनमोल,
माया, भ्रम की अकथ कहानी, रसना अब हरि बोल।
ज्योँ सत्सँगति सूप की, चहियत मनु व्यवहार,
फटकि देइ भ्रम, मोह, मद, धरै साँच-सम सार।
इच्छा कौ सागर अनत, पावौं केहि बिधि पार,
बूढ़ि नवैया ह्वै चली, जर्जर है पतवार।।
मैलि चदरिया, सूनि डगरिया, कँटक बिछे हजार,
मिलौँ कौन बिधि बेगि पिया, कहँ डोली कहाँ कहार।
वह पावौं, यहि का तजौं, उलझि गयो सँसार,
मन ते कबहुँक हरि भजै, आशादास विचार।।
खोजत मारग, ईस कौ, सुनत न उर की बात,
ज्यों-ज्यों मेँहदी रँग चढ़ै, सोइ प्रीत गहरात।
कथा राधिका-कान्ह की, प्रीति अमोल अगाध,
हरि जेहि के मन मा बसे, कह सम्पति ज्यादाद।
फिरि रिसाइ, मनुआत जिय, थकत नाहिं बिस्वास,
अनुभव, अद्भुत प्रेम कौ, कहि गए “आशादास”।।
ज्योँ सत्सँगति सूप की, चहियत मनु व्यवहार,
फटकि देइ भ्रम, मोह, मद, धरै साँच-सम सार।
इच्छा कौ सागर अनत, पावौं केहि बिधि पार,
बूढ़ि नवैया ह्वै चली, जर्जर है पतवार।।
मैलि चदरिया, सूनि डगरिया, कँटक बिछे हजार,
मिलौँ कौन बिधि बेगि पिया, कहँ डोली कहाँ कहार।
वह पावौं, यहि का तजौं, उलझि गयो सँसार,
मन ते कबहुँक हरि भजै, आशादास विचार।।
खोजत मारग, ईस कौ, सुनत न उर की बात,
ज्यों-ज्यों मेँहदी रँग चढ़ै, सोइ प्रीत गहरात।
कथा राधिका-कान्ह की, प्रीति अमोल अगाध,
हरि जेहि के मन मा बसे, कह सम्पति ज्यादाद।
फिरि रिसाइ, मनुआत जिय, थकत नाहिं बिस्वास,
अनुभव, अद्भुत प्रेम कौ, कहि गए “आशादास”।।
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सही-गलत कै खेल मँह, दुनिया भर बौराय,
गुरू करत, प्रवचन सुनत, बइठे मूड़ मुड़ाय।
कथा अकथ सिद्धार्थ की, मन मा लेउ बसाइ,
बोधिवृक्ष छाया तले, तप करि ज्ञान जु पाइ।
बूझौ आपुन चित्त ते, “आशादास” कहाय,
मन है दरपन ईस कौ, साँच बात बतलाय..!
सुख कै साथी सबहिं जग, पै दुख मा कोउ नाहिं,
मरतहिँ, परिजन लै चले, देहौँ तोहि जराइ।
बिपदा गरभन उत्तरा, हरि तब कवच बनाइ,
रक्षा परिछित कीन्हि तब, कोऊ सँग न आइ।
दाना लै, चीँटी चली, चोटी ऊँचि दिखाइ,
पै साहस कै सामने, परबत सीस झुकाइ।
एकल मानुस सिखर चढ़ि, एकल बनत समाधि,
भरम न “आशादास” रखि, चल एकल खुद साधि।
सुख-दुख, आवत जात है, केतो करौँ बखान,
कछु मन कौ समुझाइ लै, धीरज गुन की खान।।
धीरज धरि धरि धरा पर, धरत पाँव गजराज,
खावत मन भर एकसँग, कहाँ स्वान कै भाग।।
सीँचि-सीँचि मनु ना थकै, बीज, ब्रृक्ष बनि जात,
धीरज, श्रम महिमा अनत, समय पाइ फल आत।
बिपदा है अनमोल जग, रखि उर दृढ़ बिस्वास,
दमकति सोनो अगनि मा , कहि गए “आशादास”।।
मन जिनके भरि खोट है, तिनते भक्ति न होय,
कहा भयो जो, बचन लगि, मिसरी माहि भिगोय।
सिगरो जग है आँधरा, साँच बात सुनि रोय,
दरपन पोँछत रात-दिन, मन कौ मैल न धोय।
भारी गठरी पाप की, मनुज कहाँ लगि ढोय,
माखन ऊपर आत है, केतो छाछ बिलोय।।
साधो, सोई मित्र है, खरी सुनावै जोय,
बरनत आशादास हिय, ब्यर्थ समय नहिं खोय।
हाट सजी, मेला लग्यो, भरे बिबिध बाजार,
मिलत नाहिं सन्तोस कहुँ, ढूँढि थक्यो मन हार।
साँच कोउ बूझत नहीं, मन्दो हय व्यापार,
झूठ बिकत पल ना लगै, अदभुत यह सँसार।
धन्य करम की, रीत है, लेखा धरत सम्हार,
डोम हाथ हरिचंद बिकि, करत धरम उजियार।
चावल ज्योँ चीँटी लिहे, दाल कवन बिधि पाय,
तैसेइ “आशादास” जग, लोभ मनुज भरमाय।।
झूठो जग, झूठी सभा, झूठो पोथी ज्ञान,
ढूँढत भटकत ईस कौ, खुद कौ नहिं पहचान।
मूड़ मुड़ाय, गुरू करत, पै साँचो नहिं ध्यान,
धारा सम प्रवचन करत, मिलत नाहिं भगवान।
बस्त्र गेरुआ धरि लिहे, गहे जनेऊ कान,
दम्भ नाहिं उर ते गयो, हरि होवत हैरान।
माया मोहिनि मद भरै, लोभ लखै अज्ञान,
भयो बोध सिद्धार्थ कौ, कहँ कोउ उनन समान।
सुनत बड़ाई, कौर छंड़ि, काँव-काँव कौ गान,
कागा कहँ कोयल भये, लोमड़ि चतुर महान।
जेहि कै मन, श्रद्धा भरी, उर सँयम की खान,
मौन जे आशादास प्रिय, सोई समझ सुजान।।
झूठो जग, झूठी सभा, झूठो पोथी ज्ञान,
ढूँढत भटकत ईस कौ, खुद कौ नहिं पहचान।
मूड़ मुड़ाय, गुरू करत, पै साँचो नहिं ध्यान,
धारा सम प्रवचन करत, मिलत नाहिं भगवान।
बस्त्र गेरुआ धरि लिहे, गहे जनेऊ कान,
दम्भ नाहिं उर ते गयो, हरि होवत हैरान।
माया मोहिनि मद भरै, लोभ लखै अज्ञान,
भयो बोध सिद्धार्थ कौ, कहँ कोउ उनन समान।
सुनत बड़ाई, कौर छंड़ि, काँव-काँव कौ गान,
कागा कहँ कोयल भये, लोमड़ि चतुर महान।
जेहि कै मन, श्रद्धा भरी, उर सँयम की खान,
मौन जे आशादास प्रिय, सोई समझ सुजान।।
यह पावौं, वह जाय मिलि, आपा की सौग़ात,
धीरज, धरम, धरत नहीं, बेचैनी दिन रात।
पाँच गाँव की बात कहँ, दुर्योधनहिं सुहात,
नोकौं भरि भुइ देहुँ नहिं, रण की छिड़ी बिसात।
बीज बोइ फल ना मिलै, भूलि समय की बात,
माली सीँचै, जुगत ते, लखतहिं पौध सिहात।
एकहि अँडा पाइ कै, लोभ मनुज भरमात,
मुरगी चीरत, जतन ते, अब काहे पछतात।
कीन्हिं कलोलैँ कौतुकी, सतकरमन बिसरात।
बरनत “आशादास” हिय,.साँझि करत हरि याद।
मन्दिर, मसजिद ढूँढया, पै पावत नहीं कोय,
अहम् त्यागि कै जो भजै, मिलत हरी हैं सोय ll
बचपन खेलत ही गयो, बीति जवानी सोय,
साँझि भई अब राम जपि, व्यर्थहिँ काहे रोय।।
24/04/2024
बनी प्रेयसी, रूप अरु, जौबन की है खान,
गौर कपोलन सँग अधर, रँगत लाल महान।
भटकत दिन अरु रात पै, बुझी न उर की प्यास,
ज्यों मरुथल मा लगत है, अब पानी है पास।
राग-रँग बैरी भए, छाजै ना कोउ साज,
पपिहा कुहि-कुहि थकि गए, भर्राई आवाज।
बीति गए जब तीन पन, तब आए प्रभु याद,
लेखा-जोखा छाँड़ि कै, उर ते कर फरियाद।
लगन लगी हरिनाम की, अब मन नाहिं उदास,
माटी, माटी मा मिलै, कहि गए “आशादास”..!
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