“आशा” के कवित्त”
खेती बारी करि रहे,
रहे व्यस्त दिन-रात।
क्षमा चाहता मित्र, हूँ,
इतनी सी अरदास।।
तुरई माँ घाटा भयो,
घुइयाँ गई सुखाय।
भिन्डी, कीड़ा भखि लिए,
ककड़ी कौन कहाय।।
गन्ना कै लागत बढ़ी,
डीजल मँहँग बिकात,
सरकारौ से कहि रहे,
उनहूँ कहाँ सुनात।।
सोया से “आशा” बँधी,
मेथी कौ है साथ,
शकरकन्द बिकने लगे,
लाई कछु सौगात।।
ना ज़्यादा अनुभव हमें,
न ही अधिक कुछ ज्ञान।
न तो कलम है हाथ मेँ,
ना कागज “श्रीमान”।।
धन्य हुये, जो आपने,
दिया हमें सम्मान।
वर्ना “आशा” हाट मा,
बइठे बेचत धान..!
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पारवती करि स्नान रही, तब पुत्र विनायक, द्वार, बिठाये,
कोउ न आवन पाइ, बताय कै, बन्द किये पट, मनहिं सिहाये।
आइ गए शिव ताहि समय, पर मारग बालक हटि न हटाये,
क्रोध बढ़्यो, तिरशूलन माहि, दियो सिर काटि, न तनिक लजाए।।
मातु विलाप जु कीन्हि, द्रवित शिव, मस्तक कोउ नवजात मँगाए।
जोड़़ि दियो गज कौ मुख, ममता मातु की लाजहुँ, खूब रखाए।
धन्य महेश्वर शक्ति भई, जब पुत्र गजानन नाम कहाए।
मातु-पिता सम नाहिं कोऊ जग, देवन वृन्द सुमन बरसाए..!
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दूर होकर भी है लगता, हरेक पल वो पास है,
सत्य का पर्याय भी वो, सुखद इक आभास है।
स्वप्न मेँ दो पल ठहरना भी, उसे भाता है कब,
देख लूँ जी भर कभी, इतनी सी बस अरदास है।
रूप का आगार है वो, रँग कनक से साफ है,
जायसी की पद्मिनी, राधा का उसमेँ वास है।
चाँदनी फीकी लगे, उससे ही मन मेँ उजास है,
सामने सरिता है, फिर भी उर मेँ, मेरे प्यास है।
मिल ही जाएगी कभी, “आशा” यही, विश्वास है,
उससे ही अब ख़ुशी मेरी, उससे ही परिहास है..!
मन्त्री गण, कहँ राजकाज सब, दरबानन कौ घेरा,
डोम हाथ हरिचँद बिकाने, शमशानन कौ फेरा।
डन्डा कर, कर, करत वसूली, धन्य समय कौ खेला।
फारत चीर शैव्या, दरकत छाती, पुत्र अकेला।
कहँ वह रानी कहँ पटरानी, कहँ वह महल, दुमहला,
कहाँ सुगंधित स्नान, कहाँ दुर्गन्ध, चिता मह डेरा।।
रावण कौ अभिमान रह्यौ कहँ, कहँ दुर्योधन जँघा,
हिरणाकश्यप उदर चीरि, अद्भुत रूपहिँ नरसिँहा ।
कालगती, नहिं टरत, अँधेरो छँटतहिँ होत सबेरा,
“आशादास” कहत, साधो, छिनभर कौ रैन बसेरा..!
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कहँ वह बाँकी चितवन, कहँ वह रँगे पुते चौबारे,
कहाँ गए वो लोग, किया करते जो चपल इशारे।
महिला इक, चश्मा लेने जो दौड़ी, बना बहाने,
बोली, तुम क्या वही, बड़े वादे थे जिसे निभाने।
कितने ख़त अब भी सहेज कर, हैं रक्खे सिरहाने,
अँसुवन धार बही, करते क्या, क्या बनते अनजाने।
असमंजस मेँ, चाय पियें, या, आमंत्रण ठुकरा देँ,
डाँटि घरैतिन फोन, आव, क्या कविता लगे सुनाने..!
कूक बसन्त जु कोयलिया, नव कोपल, पात जु डारि सुहानी।
पीतहिँ पुष्प, पटी सरसों, लखि षोडषि चँचल, होत दिवानी।।
पीयु पपीहा, काहि लगावत अगनि, पिया परदेसन माहीँ।
प्रीत की रीति कहा कहिए, नहिं पीर जिया की जात बखानी..!
कहूँ कोरमा, कहुँ बिरयानी, कहुँ सलाद कै छल्ला,
दीसत ना कहुँ सोया, मेथी, कदुआ न करमकल्ला।
प्रेम पगी पँक्तियाँ, सुनावत समय सभा मा हल्ला,
शातिर एक शायरा, मुँह मा ठूँसि दियो रसगुल्ला।।
ढूँँढति पहुंची आइ घरैतिन, खूब मचायौ दँगा,
खबरदार, जो मोर पिया सँग, लेवै कोऊ पँगा।
घर आवत ही जली कटी फिर, खूब सुनाई हमका,
भयो सवेरो, काव्य रचत, अब “आशा” कौ मन चँगा।।
करमकल्ला # पत्ता गोभी, cabbage
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देखि-परखि कै मान, धरम कै नाम, बतावत गुरु बिस्वासी,
केतक दीसत, गेरुन ओढ़ि, जे मूड़ मुड़ाइ, भये सन्यासी।
काहि कहात बिथा, मुँह फोरि, जु जग भर तोरि बनावत हाँसी,
बरनत “आशादास”, दियो मनभेद न जाइ सबहिं, बधिँ गाँठी।
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हाड़ कँपावत जाड़, चली कँह गोरि, अगनि बरसाने,
सरसों फूल भए ब्याकुल, लगि, पाला ते कुम्हलाने।
पानी होत बरफ, तनि तापि त लेहुँ , जिया नहिँ माने,
सीँचत खनहिँ, परोस को खेत, भर्यो नहिं जात बखाने।
दादुर घूसि गए , भुइ माँहि, कहाँ वह टर्र तराने,
बरनत “आशादास” बनै नहिँ, भलि गेहूँ मुसकाने..!
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को जानहि करतब तेरे, है माया अकथ कहानी,
बूझि न पावत, काल-पहेली, भले कहावत ज्ञानी।
पर उपदेस कुसल बहुतेरे, बात परी तब जानी,
सुमिरत “आशादास” रैन-दिन, हौँ अनपढ़, अज्ञानी..!
प्रीत लखै नहिँ जात-पाँत, नहिँ उमिर, न देखै दूरी,
मानत नाहिं जिया कोउ भाँति, न समझत है मजबूरी।
“आशादास” कहात सखी, बिन दरस, रीत नहिं पूरी,
काहि सिखावत योग-वशिष्ठ, बतावत करहु सबूरी।।
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दाम, दम्भ, देखै नहीं, सोई मित्र कहाइ,
कृष्ण-सुदामा मिलि रहे, नयनन नीर नहाइ।
राम निभाई मित्रता, कियो बालि-वध जाइ,
राज मिल्यौ सुग्रीव कौ, दीन्हो वचन भुलाइ।
खोज जानकी की कठिन, आयौ तुरत बताइ,
क्षमा कीन्हिँ रघुवीर तब, तुरतहिं गले लगाइ।
निरमल मन है मित्रता, भरम न आड़े आइ,
कहाँ कोउ है मित्र सम, “आशादास” सुनाइ।।
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नहिं पूछौ सखि, बात मिलन की…..
नील बरन, पट पीत सुहावत, काहि कहौं चितवन की,
राजिव नयन, रूप अभिरामा, पाँखुरि-सम अधरन की।
“आशादास” बनै नहिं बरनत, लीन्हिँ जु सुधि बिरहन की,
देवहुँ जाहि समुझि नहिं पावत, का बिसात अधमन की..!
नहिं पूछौ सखि, बात मिलन की…
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याद आती रहे, दिल मचलता रहे,
काव्य-सरिता का जल, यूँ ही बहता रहे।
चाँदनी सी धवल, प्रीति प्रतिदिन बढ़े,
पर, अमावस का साम्राज्य, घटता रहे।।
वाहवाही का भी, दौर चलता रहे,
वृक्ष, सहचार का, बस पनपता रहे।
अब निराशा का हो, कोई कारण नहीं,
बीज “आशा” का नित, यूँ ही उगता रहे..!
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