आशातीत कल्पना
दूर क्षितिज को देख रहा था अप्लक अकिंचन मैं ।
क्या क्षितिज के पार कभी अपना भी बसेरा हो पायेगा।।
ओस की नन्ही-नन्ही बूँदों से मिश्रित खगों के कलरव से परे।
क्या उत्कंठित मन पुलकित हो पायेगा।।
आशा तेरी मुद्दतों की प्रिये क्या ….
अकिंचन भला क्या कभी पूरा कर पायेगा।
निराशा -आशा के द्वन्दयुद्ध को………
क्या कभी भला किसी भाँति विजिता कर पायेगा।।