आरक्षण- सूक्ष्म विश्लेषण
आरक्षण एक ऐसा शब्द है जिसका अर्थ भले ही एक इस शब्द द्वारा अदा किया जाता है पर इस शब्द के अर्थ के प्रभाव अलग अलग हैं, प्रयोग अलग अलग हैं तथा उपयोग अलग अलग हैं।
प्रयोग और उपयोग शब्दों को अलग अलग अर्थ अदा करने वाले शब्द मान कर मैंने उपरोक्त परिच्छेद में प्रयोग में लाया है तो यह न समझें कि मैंने यह नहीं सोचा कि पाठक की दृष्टि में यह खटक सकता है,इसलिए मैं उस पर स्पष्टीकरण प्रस्तुत करूँगा।
बात करते हैं आरक्षण शब्द के अर्थ की, जो इस चर्चा का केंद्र है।
और हाँ! आरक्षण शब्द के विषय में एक बात बची ही रह गई कि इस शब्द के प्रकार बहुत ही अधिक हैं और शायद इतने हैं कि कोई गणना हो नहीं सकती या गणना किसी ने की भी होगी, तो वह मुझे तो नहीं मिला है अब तक।
प्रयोग और उपयोग के अर्थों पर (अलग अलग अर्थ में यहाँ इस लेख में प्रयुक्त होने के कारण अर्थों शब्द की प्रयुक्ति करनी पड़ी) संक्षिप्त में चर्चा कर लेते हैं।
प्रयोग अर्थात वहाँ लाना जहाँ स्पष्ट न हो कि वह जमेगा अथवा नहीं तथा उपयोग शब्द का अर्थ है कि जहाँ स्पष्ट पता है कि जमेगा ही।
आईए अब आरक्षण को संक्षिप्त में समझ लें।
आरक्षण ट्रेन में हो या बस में, आरक्षण शिक्षा के क्षेत्र में हो या व्यवसाय में हो, वह किसी सीट पर हो या किसी विद्यालय या शिक्षण संस्थान, इत्यादि में हो, उस पर व्यक्ति विशेष का कुछ मानकों के आधार पर अथवा विशेषाधिकारों (न्यायप्रद या नहीं इस पर आगे बात करते हैं) के कारण अधिकार हो और इन सभी विषय वस्तुओं को हम एक ओर रखते हैं और इनके समक्ष रखते हैं आरक्षण के बहुत ही हानिकारक रूप को।
जातिगत आरक्षण !
जी हाँ, आरक्षण का यह रूप हानिकारक इसलिए है कि यह मनुष्यता को मनुष्यता का शत्रु बनाता है, मनुष्यता को लज्जित करता है और इसके पीछे भारत के संविधान के निर्माताओं के उद्देश्य अनैतिक राजनीतिज्ञों को अवांछित लाभ पहुँचाना कदापि नहीं था।
इसे विधिपूर्वक भारतीय लोकतंत्र में स्थापित किया गया था समाज के पिछड़े वर्ग को एक औसत तक उनकी तुलना में (तुलना में इसलिए क्योंकि कोई उच्च या निम्न स्वयं में हो ही नहीं सकता) उच्च वर्ग के बराबर ला कर छुआ छूत और स्तर आधारित असमानता को दूर किया जा सके और यह ही एकमात्र उद्देश्य था इसे लागू करने का किन्तु सत्ता लोभ की राजनीति का यह एक विशिष्ट एवं सरल साधन या कहना अनुचित नहीं होगा कि लोभ की राजनीति का यह एक सरल संसाधन बन चुका है और यह भी कहना अनुचित नहीं है कि साथ खाने, रहने, घूमने इत्यादि वाले दो व्यक्ति, जिनमें से एक वह है जिसे जातिगत आरक्षण का लाभ प्राप्त है और दूसरा वह है जिसे यह लाभ प्राप्त नहीं है, एक दूसरे के विरोधी भी बनते जा रहे हैं, प्रतिद्वंद्वी बनते जा रहे हैं।
जब दो मित्र जाति से ऊपर उठ कर बिना यह जाति की भावना मन में रखे हुए साथ होते हैं तब कोई समस्या क्यों नहीं होती?
यह एक बड़ा प्रश्न है और इस प्रश्न का स्रोत है कि वहीं दो अलग अलग समाज या समुदाय के व्यक्ति जब एक दूसरे से सम्बंधित नहीं हैं, तो यह भावना, यह अराजक भावना मन में आती है।
यहाँ कह लें कि सभी एक दूसरे से सम्बंधित हैं और वह सम्बन्ध मनुष्यता का है।
सड़क पर पड़े पीड़ित से हम जाति पूछने के बजाय उसकी सहायता करते हैं और तब यह नहीं सोचते कि वह किस जाति या धर्म का है।ऐसा क्यों भाई?
जाति पूछ लो, समुदाय पूछ लो, धर्म पूछ लो, गोत्र, पीढ़ी इत्यादि सब कुछ पूछ लो तब सहायता करो और इस बीच वह मर जाता है तो भी क्या समस्या है?
यदि तुम्हारी जाति, इत्यादि का हो तो शोक मना लो और न हो तो कोई बात ही नहीं है और यदि यह नहीं करते हो या कर सकते हो, तो यह ही बात सभी जगहों पर हर एक परिस्थिति में लागू करने का सफल प्रयास करो।
राजनीति यदि लोभ की हो, तो लोकतंत्र का अर्थ मात्र किताबों की ही शोभा बढ़ाएगा न कि वास्तविक लाभ राष्ट्र को दे पाएगा।
और अंततः एक महत्वपूर्ण बात यह है कि लोभी यदि आरक्षण के आधार पर कुछ भी (स्वयं सम्पन्न होते हुए भी) अर्जित करता है, तो जिन्हें वास्तव में आवश्यकता होती है वे भी उससे वंचित रह जाते हैं और इसमें संसाधन स्वयं राष्ट्र के ही नष्ट होते हैं, व्यर्थ होते हैं और राष्ट्र की उत्पादकता धरी रह जाती है।
यह विश्लेषण है या संश्लेषण, यह हम सभी को तय करना है।
साथ रहें
संगठित रहें
जय हिंद
जय मेधा
जय मेधावी भारत