आरक्षण : सच जानना जरूरी
हमारे देश में दलित, आदिवासियों एवं अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को नौकरी व स्थानीय स्वराज संस्थाओं में उन्हें समुचित प्रतिनिधित्व देने की दृष्टि सेभारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान है. लेकिन देखा यह जा रहा है कि कई तरह के तर्क-कुतर्क कर आरक्षण का विरोध किया जाता है. विरोध के इन स्वरों में कभी-कभी आरक्षित वर्ग से ही आनेवाले अज्ञानी वृत्ति के लोग भी अपना स्वर मिलाने लगते हैं. आरक्षण विरोधियों का सबसे पहला तर्क होता है कि यह मेरिट विरोधी है. यह देश की प्रतिभा का हनन करता है. यही कारण ये कि ‘सेव मेरिट-सेव नेशन’ का नारा बुलंद कर आरक्षण का विरोध किया जाता है. वस्तुत: आरक्षण मेरिट का विरोधी नहीं है बल्कि इससे तो देश में मेरिट अर्थात प्रतिभा का विस्तार ही हुआ है. हमारे देश में वर्षों से वर्ण-जाति व्यवस्था चल रही है जिसे धार्मिक स्वरूप दे दिया गया था, जो एक तरह से ‘आरक्षण’ ही था और सामाजिक तौर पर आज भी है. उसके तहत शिक्षा पाने का अधिकार केवल ब्राह्मण, राजपाट करने का अधिकार क्षत्रिय और व्यापार-वाणिज्य का अधिकार केवल वैश्यों को था जबकि सेवामूलक कार्य शूद्रों-अतिशूद्रों को सौंपा गया था. जब शिक्षा का अधिकार केवल ब्राह्मणों का था जिनकी आबादी देश की आबादी का केवल 3 प्रतिशत होती है अत: उनके बीच शिक्षा को लेकर विशेष प्रतिस्पर्धा नहीं रही क्योंकि बहुसंख्यक समाज पर आधिपत्य रखने के लिए थोड़ा-बहुत ज्ञान ही पर्याप्त था. इस तरह प्रतिस्पर्धा के आभाव में देश में मेरिट-प्रतिभा का विस्तार नहीं हुआ इसलिए देश जाहिलों और अज्ञानियों का न्यून-मेरिट देश बनकर रह गया. यही हाल राजनीति व व्यापारिक मसलों पर भी लागू होती है लेकिन मौजूदा आरक्षण के कारण प्रतिभा का विस्तार शूद्र-अतिशूद्र और आदिवासी वर्गों तक हुआ. यह स्थिति देश की व्यापक आर्थिक-सामाजिक सेहत के लिए सुखद ही साबित हुई है. आरक्षण के खिलाफ दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि इससे देश में जातिवाद बढ़ रहा है. लेकिन उनका यह तर्क भी एकदम सतही और पूर्वाग्रह से ग्रसित है. मैं आरक्षण विरोधियों से पूछना चाहूंगा कि आरक्षण के पहले क्या सभी जातियों में भाईचारा था, ब्राह्मण और शूद्र जातियां एक साथ मिल-बैठकर भोजन करती थीं? मेरे भाइयों, वास्तविकता तो यह है कि जब शूद्र-अतिशूद्र जातियां समान अवसर और आरक्षण के कारण सभ्य-सुशिक्षित हुर्इं तब वे कहीं अधिक एक-दूसरे के निकट आ रही हैं. सवर्ण वर्ग भी उनके करीब आ रहा है. असल में पहले शूद्र-अतिशूद्र जातियों ने अपनी दयनीय दशा को अपना भाग्य और दैवीय मानकर कर स्वीकार कर लिया था लेकिन अब वे मुखर होकर अपने हक-अधिकार-भागीदारी के लिए जागरूक हो रही हैं जिसे आरक्षण के आलोचक जातिवाद का बढ़ना बताते हैं. आरक्षण के विरोध में एक और जबर्दस्त तर्क दिया जाता है कि दूसरे देशों में आरक्षण नहीं है इसलिए वे देश हमसे कहीं ज्यादा प्रगतिशील हैं जो बिल्कुल गलत है. एक दूसरे किस्म के आरक्षण विरोधी तत्व कहते हैं कि यह आर्थिक आधार पर होना चाहिए लेकिन आर्थिक आधार पर आरक्षण के हिमायतियों को मैं बता दूं कि आरक्षण प्रतिनिधित्व का मसला है गरीबी उन्मूलन का नहीं. मैं आपको बता दूं कि मैं भी एक समय आरक्षण का जबर्दस्त आलोचक था लेकिन बाद में जब मुझे ओबीसी आरक्षण पर आधारित रामजी महाजन आयोग और मंडल आयोग की रिपोर्ट हाथ लगी. उसे मैंने आद्योपांत पढ़ा और बार-बार पढ़ा. फिर क्या था, फिर तो मुझे पूरा इतिहास-बोध ही हो गया. पहले मैं जहां आरक्षण को भेदभावपूर्ण-अन्यायकारी मानता था, अब समझने लगा कि यह तो बहुत जरूरी है. आरक्षण जो कि ऊपरी तौर पर भेदभावपूर्ण लगता है अपितु यह सकारात्मक भेदभाव है जो कि न्याय प्रदान करनेवाला है. यह तो इतिहास में निरंतर भेदभाव का शिकार होते रहे जाति-वर्गों को उनका प्रतिनिधित्व देकर न्याय प्रदान करने के लिए है. ध्यान रहे यह किसी तरह की गरीबी उन्मूलन योजना भी नहीं है कि इसका आधार आर्थिक हो. जो आरक्षण के विरोधी हैं, उनकी मानसिकता और तर्कों से मैं अच्छी तरह से परिचित हूं क्योंकि मैं कभी खुद उनकी तरह की मानसिकता का शिकार रहा हूं. मैं ऐसे लोगों से नाराज भी नहीं हूं क्योंकि उनके ये विचार उनकी सतही सोच होने के साथ ही उन्हें समुचित इतिहासबोध न होने के कारण हैं. ऐसे लोगों के मन में आरक्षण-विरोधी सोच बनाने में भाजपा-आरएसएस की भूमिका भी कम नहीं है. वह संविधान-निर्माण के काल से ही डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, भारतीय संविधान और आरक्षण का विरोध करते आए हैं. आज उनका आंबेडकर-जाप छलावे के सिवाय कुछ नहीं अत: उनसे सावधान रहने की जरूरत है. अभी हाल ही में आरक्षण पर खुले मन से बहस और समीक्षा करने की बात कहते हुए आरएसएस के मुुखिया मोहन भागवत ने मुल्क के सामने एक जरूरी बहस का न्यौता दिया है. मैं तो कहता हूं आरक्षण से होते हुए बहस जाति और हिंदू धर्म की बुनियादी कमियों पर भी होनी ही चाहिए. जाति बहस का मुद्दा हो, इससे बढ़िया क्या? इस बहस का न्यौता कबूल किया जाना चाहिए. बहस होनी चाहिए कि आज भी आरक्षण की असल हकीकत क्या है? आज भी इस किस तबके की कितनी संख्या है और कितनी हिस्सेदारी होनी चाहिए? सबको उनकी हिस्सेदारी मिली या नहीं? कोई अवैध कब्जा तो नहीं किए बैठा है या करता जा रहा है? यह बहस जातिवार जनसंख्या के आधार पर हिस्सेदारी तक हम ले जाएंगे. सबको सबका हक मिलना चाहिए.
मैं आपको बता दूं कि केवल हमारे देश में ही नहीं, अपितु विदेशों में भी आरक्षण का प्रावधान है. अमेरिका, चीन, जापान जैसे देशों में भी आरक्षण है.
बाहरी देशों में आरक्षण को अफरमेटिव एक्शन अर्थात सकारात्मक विभेदीकरण कहा जाता है. इसे कम्पेनसेटरी डिस्क्रिमिनेशन (प्रतिपूरक भेदभाव) भी कह सकते हैं जिसका उद्देश्य ‘वर्ण’ तथा ‘नस्लभेद’ के शिकार लोगों को सामाजिक समता तथा समुचित प्रतिनिधित्व (हिस्सेदारी) प्रदान करना है. वर्तमान में चूंकि अर्थव्यवस्था का तेजी से निजीकरण हो रहा है और सरकार स्वयं भी आउटसोर्सिंग के माध्यम से कर्मचारी जुटा रही है अत: अब निजी क्षेत्र में भी आरक्षण देना जरूरी है. इसके लिए भी लोगों को अब आवाज बुलंद करनी चाहिए. यद्यपि संविधान यह गारंटी देता है कि देश के नागरिकों में किसी तरह का नकारात्मक भेदभाव नहीं किया जाएगा तथापि व्यवहार में भर्तियों के मामले में जाति अब भी नियोक्ता को प्रभावित करती है और इसी आधार पर यह तय किया जाता है कि किसे नौकरी पर रखा जाएगा, किसे नहीं इसलिए निजी क्षेत्र में भी आरक्षण होना ही चाहिए.
1961 को संयुक्त राष्ट्र की बैठक मे सभी प्रकार के वर्ण-नस्ल-रंगभेद के खिलाफ कड़ा कानून बना. इसके तहत संयुक्त राष्ट्र में सम्मिलित सभी देशों ने अपने देश के शोषित किए हुए वर्ग (दलित) की मदद कर उन्हें समाज में स्थापित करने का निर्णय लिया है. इसी के तहत अलग-अलग देशों में अलग-अलग तरीके से आरक्षण लागू है. हर वो वयक्ति जो समता, स्वतंत्रता, बंधुता और न्याय को बुनियादी मानवीय मूल्य मानता है, वह अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग को दिए जा रहे आरक्षण का विरोध कर ही नहीं सकता.
अन्य देशों में आरक्षण के प्रावधान किस तरह हैं, देखिए-
* ब्राजील में आरक्षण वेस्टीबुलर नाम से जाना जाता है.
* कनाडा में समान रोजगार का सिद्धांत है जिसके तहत फायदा वहां के असामान्य तथा अल्पसंख्यकों को होता है.
* चीन में महिला और तात्विक अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण है .
* फिनलैंड में स्वीडिश लोगों के लिए आरक्षण है.
* जर्मनी में जिमनैशियम सिस्टम है.
* इजराइल में भी अफरमेटिव एक्शन (सकारात्मक विभेद) के तहत आरक्षण है.
* जापान जैसे सबसे उन्नत देश में भी बुराकूमिन लोगों के लिए आरक्षण है (बुराकूमिन जापान के हक वंचित दलित लोग हैं )
* मैसेडोनिया में अल्बानियन के लिए आरक्षण है.
* मलेशिया में भी उनकी नई आर्थिक योजना के तहत आरक्षण जारी हुए हैं.
* न्यूजीलैंड में माओरिस और पॉलिनेशियन लोगो के लिए अफरमेटिव एक्शन का आरक्षण है.
* नार्वे में 40% महिला आरक्षण है पीसीएल बोर्ड में.
* रोमानिया में शोषण के शिकार रोमन लोगों के लिए आरक्षण है.
* दक्षिण आफ्रीका में रोजगार समता (काले गोरे लोगों को समान रोजगार) आरक्षण है.
* दक्षिण कोरिया में उत्तरी कोरिया तथा चीनी लोगों के लिए आरक्षण है.
* श्रीलंका में तमिल तथा क्रिश्चियन लोगों के लिए अलग नियम अर्थात आरक्षण है.
* स्वीडन में जनरल अफरमेटिव एक्शन के तहत आरक्षण मिलता है.
* इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में भी अफरमेटिव एक्शन के तहत आरक्षण है.
अगर इतने सारे देशों में आरक्षण है (जिनमे कई विकसित देश भी शामिल हैं) तो फिर भारत का आरक्षण किस प्रकार भारत की प्रगति में बाधक है. यहां तो सबसे ज्यादा लोग जातिभेद के ही शिकार हैं. तो फिर दलित, आदिवासी तथा अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) को क्यों न मिले आरक्षण??
अगर आरक्षण हट गया तो फिर से एक ही ‘विशिष्ट’ वर्ग का शासन तथा उद्योग-व्यवसायों पर कब्जा होगा, फिर ऐसे में किस प्रकार देश की प्रगति होगी. भारत सिर्फ किसी विशिष्ट समुदाय के लोगों का देश नहीं है, सिर्फ एक वर्ग विशेष की प्रगति से भारत की प्रगति नहीं होगा.
जब तक भारत के सभी जाति धर्म के लोग शिक्षा, नौकरी तथा सरकार में समान रूप से प्रतिनिधित्व नहीं करेंगे, तब तक देश प्रगति नहीं करेगा. अगर दुनिया के सभी देश अपनी प्रगति के लिए सभी लोगों को साथ लेकर चल रहे हैं तो फिर भारत क्यों नहीं..?
-15 सितंबर 2019 सोमवार