“आम आदमी”
आम आदमी की किसको फ़िक्र है,
उनका सिर्फ़ क़िताबों में ज़िक्र है,
प्रलोभनों का फंदा ,
उसके गले में डालते हैं,
अपना मतलब निकालते हैं !
चाँदी का सिक्का उछालते हैं,
वह जब झपटता है,
उसी को मारते हैं !
तिजोरियाँ उन्हीं की,
गोदाम उन्हीं के,
आम आदमी का तो,
बस नाम डालते हैं !
आम, आम बना रहे,
ख़ास-ख़ास उसके लिए,
कुछ भी कर डालते हैं !
ख़ास की स्वार्थों की चक्की में,
घुन की तरह पिस रहा आम,
जैसे वो हो उनका गुलाम !
गुलाम का सा जीवन,
वो निकालते हैं !
ज़रूरत पड़ने पर,
सीढ़ी उन्हीं की,
कंधा उन्हीं का !
मतलब निकलते ही,
ठोकर मारते हैं
आम आदमी को,
नींबू की तरह निचोड़ते हैं,
तब जाकर
उसका पीछा छोड़ते हैं !
आम तो है आम ,
बिकता है सरेआम !
चुनावी रैलियों में, रेले में,
नज़र आएगा आम !
राशन की दुकानों पर,
धक्कें खायेगा आम !
नीले-हरे कार्ड में,
बिकता नज़र आएगा आम !
फुटपाथ पे बेमौत
मारा जाएगा आम !
सही मायने में,
मुसीबतों की भट्टी में तपकर,
कुंदन बन जाता है आम !
जिस दिन इस कुंदन ने,
“शकुन” अपनी क़ीमत जान ली,
उस दिन से, ख़ास के
बराबर इसकी आन हुई !
– शकुंतला अग्रवाल, जयपुर