आदमी क्यों खाने लगा हराम का
आदमी क्यों खाने लगा हराम का
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आदमी क्यों खाने लगा हराम का,
दौड़ता है घोड़ा बिना लगाम का।
दारु – मुर्गा मिलता मुफ्तखोरी में,
है बताता आया दवा जुखाम का।
दूरियाँ ही बन रहीं हैँ मजबूरियाँ,
नाम क्यों है रख दिया गुलाम का।
गालियाँ ही मिलती रहें इंसान को,
क्यों मियाँ भूखा सदा सलाम का।
मयकशी मनसीरत की रहीं आदतें,
मय बिना है खसता हाल जाम का।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)