आत्म-विश्वास, आत्म-सम्मान व आत्म-अनुशासन से सब कुछ हासिल # हौसले की उड़ान#
जी हां पाठकों मैं आज आपको ऐसी कहानी से वाकिफ करा रही हूं जो आपकेे हौसले की उडान को भी और बुलंद कर देगी । कहानी सच्ची घटना पर आधारित है, केवल पात्राेें के नाम परिवर्तन कियेे गये हैै ।
हांं जी कहानी की नायिका भूूमि, “जो जन्म से ही अजैले बाेेनडिसऑर्डर नामक बीमारी से पीड़ित थी” । इस बीमारी में हड्डियांं कमजोर होकर हलका झटका लगने से भी टूट जाती है । उसके पिता गलियाेें में फेरी लगाकर सामान बेचते थे , तभी भूमि और उसके दो भाई-बहनों को खाने को मिलता था । भूमि की मां को मानसिक बीमारी के कारण दौरे पडते थे । भूूमि विकलांंग पैदा हुई, इसलिये पांचवी तक विकलांग बच्चों के स्कूल में पढी । पुरानी रूढ़िवादिता के कारण परिवार में कई तरह की पाबंदियांं थी ।
“लेकिन छोटी सी भूमि के हौसले विकलांग होने के बावजूद भी इतने बुलंद थे कि वह किसी भी कठिनाई का सामना करने के लिये हर पल तैयार ही रहती” । वह जैसे ही सातवी कक्षा में पहुंची, तो पिता कहने लगे कि अब आगे पढ़़ने की जरूरत नहीं है, लेकिन भूमि को पढ़ने-लिखने का बहुत शौक था । उसने सोचा कि पिताजी मेरी पढ़ाई का खर्च नहीं उठा सकते, इसलिये वह झुग्गियाेें के बच्चों को पढ़ाने लगी ।
मुफलिसी के चलतेे एक दिन अचानक पिताजी भूमि के परिवार को दिल्ली ले गए । वहां वे छोटे-मोटे सामान के साथ मूंगफली बेचने लगे और साथ ही भूमि भी फुटपाथ पर उनके साथ काम में हाथ बंटाने लगी । अक्सर वह पिता के साथ फुटपाथ पर ही सो जाती, पर उसने अपनी पढ़ाई बराबर जारी रखी । एक दिन भूमि की मां चल बसीं । भूमि की पढाई को लेकर वे हमेशा उसका सपोर्ट करतीं थी ।
पिताजी ने दूसरी शादी कर ली, तो सौतेली मां आठवी कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ने के लिए भूमि के साथ रोज लड़ााई करने लगी । उनका कहना था कि लड़कियोंं के लिए पांचवींं-सातवीं तक पढ़़ा़ई बहुत है । इससे आगे पढ़ाया तो वे बिगड़ सकतीं हैं । वे चाहती थीं कि भूमि घर का काम करे और सिलाई का काम करके कुछ कमाई करे । भूमि का बचपन भले ही झुग्गियाेें में बीता हो, पर पढ़ने-लिखने का तो उस पर जुनून सवार था । धीरे-धीरे वक्त बीतता गया, परिवारवालों ने रहने के लिए दूसरी जगह ढूंढी, पर भूमि ने वहां जाने से मना कर दिया और अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिये त्रिलाेेकपुरी में एक कमरा लेकर रहने लगी ।
कमरे का किराया और पढ़ाई का खर्चा वहन करने के लिए वह ट्यूूूशन पढ़ाने लगी । ये बच्चेे मजदूरो, रिक्शा चालकों व दिहाड़ी करने वालाेें के होने के कारण ज्यादा फीस मिलने की उम्मीद नहीं थी । एक बच्चे के 50-60 रूपये मिल जाते थे । दिल्ली में कमरा लेकर एक लड़की का अकेले रहना किसी खतरे को न्यौता देने जैसा ही था, परन्तु किसी भी स्थिति में भूमि ने हार नहीं मानने की मन में जो ठान ली थी, उसका सपना था, इस जीवन में आईएएस बनने का, सो उसेे पूरा करने के लियेे प्रयासरत थी ।
इतनी गरीबी के बीच रोजाना संघर्ष करते हुए भी भूमि का पढ़ाई में कितना मन लगता था, इसका आप अंदाजा लगा सकतें हैं । लाख कठिनाईयांं भी आएं न, राहों में, पर जिसने भी मन में एक बार ठान लिया कि मुझे यह काम पूर्ण करना है, तो वह अवश्य ही पूरा होता है ।
“ऐसे ही भूमि आठवी कक्षा को उत्तीर्ण करते हुए परीक्षा की हर सीढ़ी को पार करती चली गयी ” और उसके लिये उन्नति का मार्ग खुलता चला गया । उसे स्कॉलरशीप भी मिलने लगी, जिससेे आगे की पढ़ाई में भी सहायता मिलने लगी । धीरे-धीरे भूमि की पढ़ाई भी उन्नति की ओर बढ़ने लगी । जेएनयू में पढ़ना उसके लिये टर्निंग पॉईंट रहा । जेएनयू से एमए के दौरान मेरिट-कम-मीन्स स्कॉलरशीप के तहत उसे 2000 रूपए महीना मिलने लगा । साथ ही होस्टल में जगह और खाना भी । ऐसे ही उसे यहां से कई देशों में दिव्यांगों के कार्यक्रम में भारत का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला । 2012 में भूमि एक सड़क दुर्घटना में व्हील चेयर पर पहुचा दिया, अस्पताल में रहने से ट्यूूूूशन छूट गयी, पर फिर भी हार नहीं मानी । जेएनयू के इंटरनेशनल स्टड़ीज स्कूल से एमए करने के बाद एमफिल/पीएचडी में प्रवेश ले लिया । “2013 में भूमि ने जेआरएफ क्रैक कर दिया तो उसे 25000 रूपए महीना मिलने लगा ” । इससे उसकी गरीबी दूर हाेेने लगी ।
“वर्ष 2014 में जापान के इंटरनेशनल लीडरशीप प्रशिक्षण प्रोग्राम के लिए भूमि का चयन किसी सपने से कम नहीं था ” । बीते 18 साल में सिर्फ तीन भारतीय ही इस प्रशिक्षण के लिए चुनी गयी थी । इस प्रशिक्षण में भूमि को दिव्यांगों को यह सिखाना था कि सम्मान का जीवन कैसे जी सकते हैं ? यह भूमि से ज्यादा और कौन सीखा सकता था, जीवन के इस दौर में वह अकेले ही संघर्ष करती हुई इस मुकाम तक जो पहुंची थी ।
एमफिल के साथ भूमि ने जेआरएफ भी क्लियर किया और जनवरी 2016 में पढ़ाई के साथ आइएएस की तैयारी भी आखिरकार शुरू कर ही दी । पहले ही प्रयास में भूमि काेे सिविल सर्विस की परीक्षा पास कर 420वीं रैंक हासिल हुई, जो तारिफेकाबिल है ।
भूमि विकलांग पैदा हुई, पर वह विकलांगता को अपनी ताकत बनाते हुए सफलता की हर सीढ़ियांं चढ़ती चली गई । उसका लक्ष्य तय है कि मैंं दिव्यांग लड़कियों और महिलाओं के उत्थान के लिए ही सदैव काम करूंगी और जो परिवार में उसके साथ हुआ, वह उनकी गलती थी । भूमि के पिता रूढि़वादी थे, शायद इसलिए वे विरोध करते रहे । भूमि ने परिवार के सभी सदस्यों की गलतियां अब माफ भी कर दीं हैं और वह पिता को हर तरह की सुख-सुविधा देना चाहती हैं ।
तो देखा पाठकों आपने गर हौसले बुलंद हो तो मंजिल को हासिल कर ही लिया जाता है, भूमि अभी भी प्रयासरत ही हैं, उनका कहना है कि आत्मविश्वास, आत्मसम्मान और आत्मानुशासन से सब कुछ पाया जा सकता है, बस आपके प्रयास में कोई कमी ना रहने पाए ।
तो पाठकों, कैसी लगी कहानी, अपनी आख्या के माध्यम से बताइएगा जरूर, मुझे आपकी आख्या का इंंतजार रहेगा ।
धन्यवाद आपका ।